Thursday, November 04, 2010

इस बार उजाला भीतर हो...........

मन द्वार सजा हो तोरण से
मन-आँगन सजे रंगोली से,
मन-मंदिर पावन ज्योति,
इस बार उजाला भीतर हो.

अंतस के गहन अँधेरे में,
धुंधली पड़ती पगडण्डी पर
बस एक नेह का दीप जले,
इस बार उजाला भीतर हो.

रिश्तों की उलझी परतों में,
उजली किरणों का डेरा हो,
हर मुख चमके निश्छल उज्जवल,
इस बार उजाला भीतर हो.

पिछली,बिखरी,उजड़ी,कडवी
बिसरें स्मृतियाँ जीवन की
अब नए स्वरों का गुंजन हो,
इस बार उजाला भीतर हो.

जीवन यात्रा के शीर्ष शिखर
आशीष भरे जिनके आँचल,
छाया दे हर नव अंकुर को,
इस बार उजाला भीतर हो.

प्रतिपल जीवन में उत्सव हो
हर दीप तेल और बाती का,
स्नेह पगा गठ बंधन हो,
इस बार उजाला भीतर हो.

साकार बने अब हर सपना,
अपनेपन का आकार बढे,
अब सब अपने ही अपने हो,
इस बार उजाला भीतर हो.



----प्रवीण उमेश मल्तारे
     भोपाल मध्यप्रदेश.

कौन आया?

अनमने मन की धरा पर,
मुस्कुराकर
दीप यह किसने जलाया
कौन आया?
खिलखिलाती धूप अगहन की कुंवारी
ज़िन्दगी के शुष्क  आँगन में उतारी
कौन बदली नीर यह बरसा गयी है
वादियों पर आ गयी फिर से खुमारी
रात के सूने पहर में
चांदनी सा
कौन आकर मुस्कुराया
कौन आया?
जम गया वातावरण में फिर हरापन
आ गया है द्वार अपने आप हरापन
प्यार के सन्देश देते हैं सितारे
कर दिया भटकी हवाओं ने समर्पण
सुप्त वीणा के हृदय में
चेतना का
तार किसने खन-खनाया
कौन आया?
वेदना के मिट गए बदल घनेरे
दिखते हैं स्वप्न में केवल सवेरे
फिर हुई आँखें शरारत पर उतारू
इन्द्रधनुषी हो गए अरमान मेरे
प्रण किया था
फिर न गाऊंगा कभी वह
गीत फिर से गुनगुनाया
कौन आया?


----मयंक श्रीवास्तव
    भोपाल मध्यप्रदेश