Friday, December 28, 2018

कल और आज

एक घिसा हुआ टायर
तीन-चार कंचे
टूटा दांत
और उन्मुक्त हँसी।
कितने अमीर होते थे
बचपन में हम भी।

माचिसों के ताश
लूटी गयी पतंगें
इश्तिहारी पर्चे
कुछ चिकने से बटन
और बीज कुछ सलोने से

कितना कुछ हुआ करता था
सहेजने के लिए।

आज जब 'निम्बल'
झांकता है पुराने एल्बमों में।
भीतर कुछ,
सुलग सा जाता है।

शायद वक़्त की रफ़्तार,
आगे निकल गयी मुझसे।
शायद जवानी
बहुत कुछ ले गयी।

-निम्बल

Friday, November 30, 2018

स्नेह सम्मिलन, ऋषिकेष

स्नेह सम्मिलन ऋषिकेश
23से 25 नवम्बर, 2018

एक ऐसा आयोजन जो सपनों को सच करने जैसा रहा। घने जंगल के बीच, शहर की चिल्ल-पों से दूर, छोटी सी नदी (हेजल)के तट पर, मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करते टेंट्स में बेहद स्वाद और सात्विक भोजन के साथ आप सब मित्रों के स्नेहपूर्ण व्यवहार ने इस पूरे आयोजन को जीवन की अविस्मरणीय स्मृति बना दिया।

रवि भाई ने इतनी जिम्मेदारियों के रहते इतना कुछ ऐसे स्थान पर उपलब्ध करा डाला जहां अनाज का दाना भी मिलना सम्भव नहीं। उस पर भी इतनी सरलता कि ना तो चेहरे पर कोई गर्व दिख रहा था न ही आंखों और व्यवहार में कोई अभिमान। रवि जी जैसा कोई बन पाए समझ लीजिए जीवन में सफल हो गया।

कुंदन जी के बारे में क्या कहें जो है ही कुंदन। मुझे लगता है कुंदन जी के घर वालों ने उनका नाम सोच समझ कर ही रखा होगा कि इनको बड़े होकर बनना ही कुंदन है। आयोजन की व्यवस्था को इतनी सहजता से इन्होंने संभाल लिया कि कक्ष वितरण में और अन्य किसी व्यवस्था में किसी भी प्रकार की कोई त्रुटि नहीं हुई।

मनोज सेंगर जी ने भी व्यवस्थाओं को इतने अनुभवी तरीके से संभाल रखा था कि ऐसा लगता नहीं था वह भी बाहर से ही आए हैं।

राजकुमार मिश्रा जी से मिलकर ऐसा नहीं लगा कर पहली बार मिल रहा हूँ। सबसे ज्यादा प्रभावित किया आदरणीय श्री प्रकाश मिश्रा जी ने। एक तो उनका समारोह में आना ही बड़ी बात रहा क्योंकि इतनी ठंड में, मूलभूत आवश्यकताओं से इतना दूर, नन्हे बालक के साथ, जंगल में 3 दिन रहना एक बड़ी चुनौती है जिसका उन्होंने बखूबी सामना भी किया और आयोजन में इतनी सक्रियता से भागीदारी की कि मुझे बार-बार हैरानी हो रही थी।

मेरे तीनों बालक उनके बच्चे से तो बड़े ही हैं। फिर भी मैं इतना समय आयोजन को नहीं दे पाया जितना प्रकाश मिश्र जी ने दिया प्रकाश जी का पूरा व्यक्तित्व ही ऊंचे लंबे कद और रंग रूप से लेकर गीत संगीत में इतनी रुचि आदि को मिलाकर अनुकरणीय कहा जा सकता है।

इन्हीं से मिलता जुलता व्यक्तित्व मुझे नजर आया आदरणीय श्री मनु त्यागी जी का। आशीष त्रिपाठी जी के बाद यदि अन्य कोई हीरो कहा जा सकता है तो वह श्री मनु त्यागी जी ही हैं। इतना बड़ा नाम, इतना विशाल व्यक्तित्व और उतनी ही सरलता व्यवहार में। मनु त्यागी जी के बारे में सोशल मीडिया पर कितना पढ़ा है उसके कारण मन में यह डर था कि कहीं वह हमसे बात भी करेंगे या नहीं। लेकिन उनसे मिलकर ये आयोजन एक मधुर स्मृति बन गया है।
सन्दीप पंवार जी से मिलकर भी बहुत अच्छा लगा। पवन यादव जी और उनके साथ आए नवीन शर्मा जी, पानीपत से आए बलकार जी, इन से मिलना भी मेरे लिए बोनस रहा।

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अपने मित्र श्री अनिल वर्मा जी के साथ भी करीब 20 साल बाद इतना समय इकट्ठा बिताने का अवसर इस सम्मिलन में ही मिला। जीवन जी के साथ रोजाना का मिलना हो जाता है लेकिन एक साथ इतना समय उनके परिवार के साथ पहली बार बिताया।

अनिल वर्मा जी की पहली ही गेंद पर मेरा झन्नाटेदार चौका मेरे लिए उम्र भर की धरोहर बन गया। हम दोनों 20 साल बाद एक साथ क्रिकेट खेले लेकिन यकीन मानिए ये आज भी उतने ही बड़े चीटर हैं। अपनी बैटिंग के चक्कर में ये किसी को भी रनआउट करा सकते हैं। हमने 1999 में इनका नाम आर ओ यानी रनआउट रखा था जो आज भी तर्कसंगत है।

पवन जी आगरा का व्यक्तित्व बहुत प्रभावित करता है। उनके चित्र इतने अच्छे रहे कि मुझे मलाल है मैंने उनसे अधिक चित्रों का अनुरोध नहीं किया। उनका आभार जो वो क्रिकेट किट लेके आये और हमने खूब आनन्द उठाया। एकमात्र क्रिकेट मैच हुआ और मेरी टीम विजयी रही। उनके बड़े बेटे में मैंने भविष्य का महान क्रिकेटर देख लिया है। सबसे बड़ी बात उनके सुपुत्र में ये नज़र आई कि प्रतिभा के साथ-साथ उनमें आत्मविश्वास भी प्रचुर मात्रा में भरा हुआ है जो क्रिकेट में उनके बहुत काम आएगा। पवन जी की जीवटता अनुकरणीय है। बड़े एक्सीडेंट का बाद उन्होंने बहुत जल्दी रिकवरी भी की और बाइक से लेह यात्रा भी केवल 11 माह बाद।

डॉ. तिवारी दम्पत्ति से मिलकर और बात कर उनके अनुभव सुने। श्री जयकांत जी, डॉ. आशुतोष जी, मनोज जी, दुनाली जी, सौष्ठव जी, जितेंद्र जी और डॉ. पवन मिश्रा जी आदि से अपार स्नेह पाकर ऐसा लगा मैं भी विशेष हो गया हूँ।

सब लोग मुझसे ऐसे मिल रहे थे मानों मैं कोई सेलिब्रिटी हूँ। और मैं ऐसा निकम्मा कि हर काम में अनधिकृत रूप से अपनी टांग अड़ाता रहा। चाहे रसोई में बिना आज्ञा घुसना रहा हो चाहे बिना अनुमति माइक का प्रयोग। मैं बेशर्मों के जैसे अपनी मर्जी करता रहा, जाहिर है बहुतों को बुरा लगा होगा। इसलिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

पहली शाम आशीष तिवारी जी की शादी की सालगिरह मनाई गई केक काट कर। बड़ा सुस्वादु केक था। मैंने बच्चों के बहाने तीन-चार बार खाया।😜😜

अपने जिगरी यार दीपक जैन जी का जन्मदिन आप लोगों के साथ मनाना मेरे लिए एक निजी प्राप्ति रहा। नन्हे बालक को भी रवि शुक्ल जी, आशीष जी, सचिन जी, सुबोध जी, सौष्ठव जी और अन्य सभी उपस्थितों का आशीष मिला जो उसके जीवन को ऊंचाइयों तक लेके जाएगा।

रसोई में संगीता जी का साथ मिला और उनसे सीखने को मिला कि कहीं भी आप इस तरह से काम कर सकते हैं जैसे आपका अपना काम हो। कोई उहापोह नहीं कोई श्रेय लेने का माद्दा नहीं।अदिति उमराव जी से आत्मविश्वास और कविता जी से स्नेह पगा व्यवहार सीखने मिला।

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कुछ डरावने अनुभव भी रहे।

दिन में मैं कहीं व्यस्त था तो नन्हा धनुष अपनी मम्मी की आंखों में धूल डाल नीचे नदी किनारे निकल गया जिसे रवि शुक्ल जी वापस लेके आये। जब रवि जी ने मुझे बताया तो कलेजा बाहर आने को हुआ मेरा।

उसी रात जब सोने की तैयारी थी तो मैं अर्जुन के पास लेटने से पूर्व बिस्तर देख रहा था और अर्जुन सोया हुआ था तो मैंने उसके सिर के पास एक जहरीला कीड़ा नज़र आया जिसे मैंने उठा कर टेंट से बाहर किया।

रात को ही हमारे टेंट के पास एक बिल्ली अजीब आवाज़ निकालती हुई चक्कर काट रही थी जिसके कारण पूरी रात भय रहा कि कहीं वो टेंट में ना घुस आए। प्रकाश मिश्र जी के नन्हे बालक की बार-बार चिंता हो रही थी कि कहीं उनके टेंट में ना ये जानवर चला जाए। बिल्ली जैसा जानवर छोटे बच्चों के लिए खतरनाक होता है।

उससे पहले अर्जुन अचानक जोर से चिल्लाकर नींद से उठा और छाती पकड़ कर रोने लगा। कारण पूछा तो कुछ बता नहीं पाया। उसके तुरन्त बाद ये बिल्ली वाला किस्सा हुआ। फिर तो सारी रात बस ऐसे ही गुज़र गयी।

कैम्प के दूसरे दिन काफी लोग आसपास घूमने निकल गए तो हमने भी क्रिकेट के तुरंत बाद नीचे नदी के किनारे कुछ चहलकदमी और मस्ती का प्लान बनाया। एक किनारे सौजन्य बाबू की टीम थी जिसमें सचिन जी, रवि जी आदि के साथ 15 के करीब लोग थे और दूसरे किनारे हम तीन परिवार। जीवन जी सपरिवार नीलकंठ निकल लिए थे। हमने नदी तट पर उतनी ही दूरी तक ट्रैकिंग की जहां तक मार्ग मिला। फिर वापस आकर सम्मिलन स्थल के बिल्कुल नीचे खूब देर जलक्रीड़ा की। धनुष सबसे ज्यादा समय पानी में खेला।

फिर ऊपर सम्मिलन स्थल से परिचय शुरू होने की आवाजें सुनाई देने लगी तो हम सब वापस ऊपर आ गए जहां परिचय के दौरान खूब हंसी ठट्ठा हुआ। हम जब तक नीचे नदी पर से ऊपर आये तब तक सौजन्य जी चोर-किसान-सिपाही का किस्सा सुना चुके थे जो मेरे लिए एक पहेली बन के रह गया। काश कोई दोबारा सुना दे।

हमारा समूह फतेहपुरियों के बाद शायद सबसे बड़ा रहा। फिर लंच लग गया तो परिचय क्रम अधूरा रह गया। लंच थोड़ा देर से लगा था सो सबने डट कर खाया। लंच में सारा भोजन पहाड़ी स्टाइल का था जिसमें मड़वे और गेहूं की रोटी, झिंगोला की खीर, गहद की दाल, पहाड़ी आलू मटर की स्वादिष्ट सब्जी, मूली-गाजर और प्याज-टमाटर का सलाद साथ में चावल। अहा! स्वाद अभी तक मुंह पर है। पहले महिलाओं और बच्चों को पत्तल पर खाना परोसा गया फिर हमारा नम्बर आया।

खाना खाने के बाद जब अन्य किसी कार्यक्रम की शुरुआत होती हमें नज़र नहीं आई तो दीपक, अनिल और मैंने जाकर माइक, ढोलक और हारमोनियम सम्हाल लिया और गणेश वंदना से होते हुए हनुमान जी की स्तुति की फिर भालचन्द्र जी द्वारा 'पुष्प की अभिलाषा' का सुंदर गान हुआ। पश्चात 'भारतवर्ष हमारा है' की ओजपूर्ण प्रस्तुति ने सबको बांध लिया। मैंने मुकेश के एक गीत 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' से मौसम और रंगीन बनाया। फिर 'मेरी तमन्नाओं की तकदीर तुम सँवार दो' भी गाया। पश्चात 'तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती' और जब 'कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है' गाया तो अर्धांगिनी जी ने भी आकर मेरा साथ दिया।

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कार्यक्रम अब रंग में आ चुका था। उपस्थिति भी अच्छी-खासी हो गयी थी। तब मैंने आदरणीय रवि शुक्ल जी को मंच पर आमंत्रित किया और संचालन प्रभार सौष्ठव जी को सौंप कर मंच से नीचे उतर आया। फिर तो जो समां बाँधा गुरुदेव ने कि क्या कहिये। कवि सम्मेलन को सुबोध जी शिखर पर पहुंचाते उससे पहले मैंने दीपक और उनके सुपुत्र अंश के जन्मदिन का केक गुरुदेव और अन्य विभूतियों के हाथों कटवाया। फिर एक दो व्यवधानों के बाद एक लुटेरा आता है। सूरत इतनी भोली कि कोई भी लुटने को स्वतः सज्ज हो जाये, स्वर ऐसा कि सामने वाला मुग्ध होकर अपने आपको सरेंडर कर दे, सौम्यता ऐसी कि सारी रौनक उसी लुटेरे से बंध जाए। उस लुटेरे ने कोई रहम नहीं किया और अपने शहद बुझे मुक्तक रूपी बाणों से सभी श्रोताओं का हृदय बींध डाला। फिर सबके मन और भावनाओं को अपने झोले में डाला और पूरी महफ़िल लूट कर लुटेरा अपने कक्ष में जा विराजा। सुबोध वाजपेयी नाम के इस लुटेरे से सुबह तक भी कुछ लोग लुटने को तैयार बैठे थे।

कुछ मित्रों को सारा आयोजन उतना व्यवस्थित नहीं लगा जितने की आशा थी लेकिन मेरा तो ये हाल होता है कि सौजन्य जी से मिलकर भूख भी याद नही आती, रवि शुक्ल जी को देखने भर से देव दर्शन की अनुभूति होती है, सचिन भाई के रहते व्यवस्था-अव्यवस्था पर ध्यान नहीं जाता। एक ओर पर्वत पर सुनहरा हिरण चर रहा हो और दूसरी ओर भालू के पैरों के निशान दिख जाएं, एक ओर मनु त्यागी जी, सन्दीप पंवार और पवन यादव जी हों दूसरी ओर आशुतोष जी, सुबोध जी और सौष्ठव जी हों तो कौन कमबख्त ये देखेगा कि खाना लगा या नहीं।
नीचे मन्द गति से बहता शीतल जल केवल उतना ही शोर कर रहा था जितना कानों को भा जाए।

दोपहर को जब बहुत लोग यहाँ-वहाँ निकल गए थे तब कुछ मगरमच्छ सपरिवार जलक्रीड़ा में मग्न थे जिनमें मैं भी शामिल था। जल इतना स्वच्छ था कि छोटी-छोटी मछलियां बिल्कुल साफ नजर आ रही थीं। धनुष ने जलक्रीड़ा में भी खूब धमाल मचाया और ट्रैकिंग में भी सारा रास्ता पैदल ही तय किया। ढाई बरस के बालक के लिए ये बड़ी बात है।
दूसरी ओर पवन जी आगरा और मनु त्यागी जी अपने-अपने कैमरे से धमाल मचाये थे जिनके चित्र देखकर हमें उनकी मेहनत नज़र भी आई।
रात में दीपक जी ने भी बहुत सुंदर गीत प्रस्तुत किये जिनमें "छूकर मेरे मन को" और "आ चल के तुझे मैं लेके चलूं" आदि प्रमुख थे। धमगज्जर अपने यौवन पर नहीं आ पाया तो सबने चाय के साथ पकौडों का आनन्द लिया, फिर रात को तहरी (एक प्रकार की मसालेदार खिचड़ी, कुछ-कुछ पुलाव जैसी) भी खाई जिसे बघार दी हुई लस्सी (मट्ठे) के साथ परोसा गया था। बाद में दीपक जी द्वारा अपने और सुपुत्र के जन्मदिन के अवसर पर मीठा दूध वितरित किया गया।
फिर रात्रि विश्राम।
अगली प्रातः हम 7 बजे निकल लिए। लेकिन उससे पहले पवन जी, पवन जी आगरा, संगीता जी और मनोज जी, राममोहन जी, छवि जी, भालचन्द्र जी, सचिन जी, सुबोध जी और बहुत सारे अन्य परिजनों ने बहुत भाव पूर्ण विदाई हमें दी। रवि त्रिवेदी जी के मुख पर भावुकता जैसे टपके जा रही थी। सवेरे खूब सारे चित्र लिए गए। बहुतों से पुनः भाव भरा मिलना हुआ और हम  अपनी गाड़ी से घर के लिएनिकल पड़े।

मन अभी भी वहीं पड़ा हुआ है। कोई जाए तो उठा लाये और हमें व्हाट्सएप्प कर दे।

-इति

Thursday, June 28, 2018

गौमुख यात्रा, जून 2012

गौमुख यात्रा, जून 2012

सोनू- अब यहां से आगे?
मैं- चलो पता करते हैं।
मैं -भाई साहब! गंगोत्री के लिए कहाँ से साधन मिलेगा?
भाई साहब- ऐसा कीजिये थोड़ा आगे टेक्सी स्टैंड है। वहां से जीप मिल जाएगी।
मैं- शुक्रिया जी।
मैं और साले साहब गौमुख जाते हुए उत्तरकाशी पहुंच चुके थे। 12 बजे का वक़्त हो चला था और हम आगे गंगोत्री का साधन ढूंढ रहे थे। ये बात जून 2012 की है। हम टैक्सी स्टैंड पहुंचे तो एक सूमो चलने को तैयार थी। बस दो सवारियों की कमी थी। मैंने देखा दोनों खिडकियों पर एक-एक सवारी थी। बीच में दो सीट खाली। मेरे लिए पहाड़ी सफर में खिड़की जरूरी। एक ओर साधु बाबा थे तो दूसरी ओर एक किशोर।
मैंने किशोर से कहा- भाई ये सीट मेको दे दे।
किशोर- क्यों? इस सीट के चक्कर में पहली गाड़ी निकाल चुका हूं।
मैं- भाई मुझे उल्टी लगेगी।
किशोर- तो अगली गाड़ी से आ जाइयो।
मैं- चल भई सोनू, बैठ इसी में। उल्टी आयी तो भाई की गोद में करूँगा। बाबा तो मोगरा दे मारेगा।
किशोर- (हंसते हुए) मोगरा क्या होता है भैया?
मैं- लट्ठ को हमारे यहां मोगरा भी कहते हैं। और बताओ, कहाँ जा रहे हो?
किशोर- जी मैं गंगोत्री जाऊंगा।
मैं- (मन में कुढ़ते हुए) ही ही ही। अच्छा। (मैंने तो सोचा था बीच में कहीं उतरोगे तो सीट हथिया लूंगा। लेकिन तू तो धुर तक छाती पर मूंग का हलवा बनाएगा।)
किशोर- कहाँ से आये हैं आप? गौमुख जाएंगे?
मैं- हरियाणा से आये हैं भाई। अभी तो गंगोत्री जाएंगे। आगे देखते हैं कहाँ ले जाते हैं रास्ते। नाम क्या है तुम्हारा?
किशोर- जी पंकज जोशी। और हमारा गंगोत्री में लॉज है।
मैं- अच्छा! फिर तो भैया तुम्हारे पास ही रुकेंगे हम तो। अब तो दोस्ती हो गयी अपनी! हैं हैं।
पंकज- जी भैया बिल्कुल। 2000 का रेट है, आप 1500 दे देना।
मैं- 1500 तो ज्यादा हैं यार।
पंकज- अरे भैया ज़्यादा नहीं हैं। सीजन चल रहा है इससे कम ना मिलेगा कहीं। आपको रूम भी ग्राउंड लेवल वाला दूंगा। कोई सीढ़ी वीढ़ी नहीं चढ़नी।
मैं- भई मैं 900 दे सकता हूँ बस।
पंकज- इतने में ना हो सकेगा भैया।
मैं- हुस्न पहाड़ों का ओ सायबां......
पंकज- आप तो बहुत मीठा गाते हो भैया।
मैं- तू फिर भी 1500 मांग रहा है।
पंकज- अरे आप 1200 दे देना। बस्स?
मैं- 900 से एक पैसा ज्यादा नहीं।
पंकज- इतने में तो ना होगा भैया।
मैं- सोनू मेरा फोन देना भाई।
पंकज- आपका फोन तो बड़ा प्यारा है भैया! दिखाना ज़रा।
मैंने फोन पंकज को पकड़ा दिया। उस समय एंड्रॉयड नहीं था चलन में। मेरे पास नोकिया 5233 था। कुछ देर देख कर पंकज ने फोन मुझे वापस कर दिया।
पंकज- भैया आप 1000 दे देना
मैं- 900 से एक पैसा ज्यादा नहीं।
पंकज- ये सभी हरियाणा वाले ऐसे ही होते हैं क्या?
मैं- कैसे?
पंकज- आप जैसे।
मैं- क्यों? मेरी क्या चीनियों जैसी शक्ल है?
पंकज-हा हा हा हा
चलिए आप 900 ही दीजिएगा। लेकिन किसी को बताइयेगा मत कि मैंने इतने में दिया है आपको।
चार घण्टे में हम गंगोत्री पहुंच गए। रास्ते में हम दोनों ने बहुत बातें की। पंकज बहुत बोलता था। मैं भी कम नहीं था। देखा जाए तो दोनों को एक ही कीड़े ने काटा था।
पंकज के लॉज में सामान रखकर हम उसके ऑफिस में आ गए। जहां हमने अपना नाम-पता लिखवाया और आई डी दी। पंकज ने बताया कि आप अभी जा के गौमुख जाने की परमिशन ले आइये। वरना सुबह दफ्तर देर से खुलेगा। खाना सामने वाले ढाबे में खाना। मैं उसको बोल के सस्ता और बढ़िया बनवा दूंगा। हम उसकी बात मान कर बाजार में आ गए।
मैं- सोनू! कहीं ये हमें ठग तो नहीं रहा! ज़रा कमरों के रेट पता कर लेते हैं।
सोनू- जी जीजू।
हमने वहां 5 लॉज और होटल्स में कमरों के रेट पता किये। शाम का समय होने के कारण कोई भी 2000 से नीचे नहीं बोला। एक 1500 बोला लेकिन हरियाणा का नाम सुनकर कमरा देने से साफ मना कर दिया। फिर एक दलाल आया और बोला- साहब आप भले आदमी लगते हो। नीचे थोड़ा चलना तो पड़ेगा लेकिन आपको 1700 में फर्स्ट क्लास कमरा दिला दूंगा।
मैंने उसको ऐसी नज़र से देखा कि बेचारा सहम कर भाग गया। हमें तसल्ली हो गयी कि पंकज भला लड़का है। फिर हम वन विभाग के दफ्तर में गए और सम्बंधित प्रपत्र भरकर अगले दिन गौमुख जाने की परमिशन ले ली। प्रपत्र में घर का पता, फोन नम्बर के अलावा ये भी लिखा था कि हम अपनी मर्जी से आगे जा रहे हैं और किसी भी प्रकार की दुर्घटना होने पर दिए गए नम्बरों पर सूचित करके घरवालों को खबर दी जा सकती है।
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हम इसके बाद गंगा आरती में शामिल हुए और फिर वापस पंकज के लॉज में आ गए। शाम का खाना खाने भी पंकज के बताए होटल में ही गए। उन्होंने हमें 75 रुपये में दोनों को बढ़िया दाल फ्राई और तवे की करारी रोटियां खिलाई। मैं ज़रा मोटी रोटी पसन्द करता हूँ सो मेरे कहने पर उन्होंने मेरी पसन्द की रोटियां मुझे बना कर दी। साथ में रायता और सलाद कॉम्प्लीमेंट्री। हम जितने दिन वहां रहे खाना, नाश्ता सब वहीं किया। हर बार 70 से 75 रुपए में दो लोग। बाजार में 100 रुपये में खिला रहे थे एक बन्दे को।
इससे पहले पंकज ने अपना एक नौकर हमें दिया जिसको दाणी बोलते हैं वहां लोकल भाषा में। वो एक किशोर बालक था। उसने शाम को हमें पूरी गंगोत्री में घुमाया। नारायण कुंड पर हमें दो लोग मिले हरियाणा के। एक करीब साढ़े छह फीट लम्बे थे। दूसरे सामान्य कद के। वो सुबह गौमुख जाने वाले थे। मैंने उनको परमिशन लेने बारे पूछा तो उन्होंने अनभिज्ञता दर्शाई। फिर मेरे कहने पर वो गए और परमिशन लेके आये। हमने आपस में नम्बर साझा किए और सवेरे इकट्ठे चलने पर सहमति बनाई।
दाणी हमें स्थानीय कॉफी वाले बाबा की गुफा में भी ले गया जो आगन्तुकों को निशुल्क कॉफी पिलाते हैं। दुर्भाग्य से जब हम गए कॉफी उपलब्ध न थी। खैर घूम-फिरकर हम कमरे पर आकर सोने की तैयारी में लग गए। फिर पंकज कमरे में आया और हमारे साथ गप्पें हांकने लगा। दाणी को बोलकर गर्म पानी की बाल्टी मंगवाई और हम पैर धोकर रजाई में घुस गए। ठंड इतनी ज्यादा हो गयी थी कि मेरा फोन निर्जीव हो गया। मैंने उसे अपने शरीर की गर्मी दी तो उसने आंखें खोली। मैंने घर फोन करके अपनी स्थिति और अगले प्लान बारे सूचित किया। पंकज मेरे फोन को देख रहा था कि मैंने कैसे उसे अपनी गर्मी देकर चालू किया।
उसने कहा- भैया आप अपना फोन बेचेंगे?
मैं- पंकज जिसे तू इसकी खूबी समझ रहा है वो दरअसल इसकी खराबी है। मैं तुम्हें धोखे में रखकर कैसे ये खराब फोन दे सकता हूँ भला?
फिर उसने बताया कि हरियाणवी लोग आप जैसे कम होते हैं। एक बार एक हरियाणा का आदमी पैसे दिए बिना कमरा छोड़कर भाग गया और उनकी रजाई भी ले गया। जिसे वो लोग बसस्टैंड से वापस लेके आये। मैं उसकी बात सुनकर बड़ा शर्मिंदा हुआ। जब नींद आने लगी तो पंकज ने कहा वो नीचे के कमरे में सो रहा है। कोई काम हो तो मैं फोन कर लूं। फिर हम सो गए।
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सवेरे चार बजे हम पानी व मिरिंडा की बोतलें, घर की बनी मठरियां, एक गिलास, अंतःवस्त्र और तौलिया एक बैग में लेकर चल पड़े। थोड़ा चलते ही हमारे साथी हमें आगे खड़े मिल गए जो शाम को नारायण कुंड पर मिले थे। अपने राज्य के लोग जब मिलते हैं तो दूसरे राज्य में अपनापन सा महसूस होता है। हम चल दिये। थोड़ा चलते ही महसूस हुआ कि वो लोग सामान्य आदमी नहीं थे। लम्बे वाले तो गज़ब के थे। न बीच में कहीं बैठना, न कुछ खाना। बातें भी जरूरी होने पर ही करते। उनके साथी की बातों से मालूम हुआ कि वो जलसेना या वायुसेना से सेवानिवृत्त हुए हैं। अविवाहित हैं और बहुत संयमी हैं। हमसे उनके बराबर नहीं चला जा रहा था। वो आगे निकल जाते तो हमारा इंतज़ार करते। लेकिन खड़े रहकर ही। हम उनके पास पहुँचते तो वो फिर चल देते। मार्ग में वो एक बार भी नहीं बैठे कहीं। मैंने उनको यति नाम दे दिया। 20 किलोमीटर के करीब ऊबड़-खाबड़ मार्ग, तेजी से कम होती ऑक्सीजन, तापमान में निरन्तर उतार-चढ़ाव, रास्ता नज़र न आना आदि कितनी ही मुश्किलें आईं। बीच में बड़ा विशाल मैदान भी आया जहां से हर ओर का नज़ारा इतना हसीन दिखता था कि इंसान सब थकान, परेशानियां भूल जाए। मैं वहां एक बड़े से सपाट पत्थर पर पीठ के बल लेट गया। आंखें बंद कर ली। 5 मिनट बाद धीरे से आंखें खोली तो इतना शानदार अनुभव हुआ कि उसके लिए मेरे शब्दकोश में कुछ दिन मिलता। बादलों को देखते हुए पहाड़ को निहारना। उफ्फ्फ कैसे न कोई दीवाना हो जाये। वहां से गौमुख थोड़ी दूर रह गया था। सो मैंने उन मित्रों को आगे चलने को कहा और अपने लाये हुए खाद्य में कुछ वज़न घटाने की सोची। बीच में भी हम खाते रहे थे। जिसमें यति के साथी तो खा लेते थे लेकिन यति जी केवल पानी पीते। वो दोनों अब आगे बढ़ गए और हम दोनों वहां पत्थरों पर बैठ कर बिस्कुट और मठरी खाने लगे। साथ में मिरिंडा की चुस्कियां। तभी हमारे पास पीले पंजों और पीली चोंच वाली कोयल के रंगों आकार की चिड़िया आ बैठी। मैंने उनको बिस्किट दिए। फिर वो हमारे बहुत करीब आ गईं। मैंने अपने हाथ पर बिस्कुट रखकर उनके सामने किया तो वो सभी मेरे हाथ, कंधे, सर और पैरों पर बैठ कर बिस्कुट खाने लगीं। मैंने सोनू की सहायता से वीडियो भी बनाई।
यहां तक का रास्ता कितना मुश्किल, खतरनाक और शरीर के कस-बल ढीले करने वाला था ये आप इस बात से अंदाजा लगा सकते हैं कि मैंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि हे गंगे मैया! इस बार किसी तरह पार लगा दे, दोबारा नाम नहीं लूंगा आने का। मार्ग में नुकीले पत्थर जूतों के अंदर तक असर कर रहे थे। बीच में  सौ मीटर मार्ग इतना खतरनाक था कि मैंने सोनू को कहा तुम अभी यहीं रुको, अगर मैं सकुशल उस ओर पहुंच जाता हूँ तो आगे कदम बढ़ा लेना। वरना सहायता मंगा लेना। कुछ स्थानों पर रास्ते के नाम पर पेड़ काट कर पहाड़ी नाले पर पुल बना रखा था तो कहीं पर पहाड़ से निकले उभारों को पकड़ कर चलना पड़ा। एक जगह खिसकने वाला बारीक बजरी/बजरपुर था जिस पर चलते-चलते कई मीटर नीचे चले जाते। दौड़ कर पार न किया जाता तो खाई में जाना तय था।
बीच में सपाट और चौड़ा मार्ग आता लेकिन वहां तापमान इतना कम होता और हवा इतनी सर्द कि राम-राम करके वहां से निकलते। कई स्थान इतने खूबसूरत भी आये कि वहां हमने अपनी हार भी उतारी। बादल घिर करके जल्दी ही मन में भय भी जगा देते थे।
फिर हम आगे चल दिये। एक बजते-बजते हम गौमुख पहुंच गए। सारे रास्ते हम चारों के अलावा कोई नज़र नहीं आया था। वहां भी हमारे वो दोनों मित्र ( यति जी ), दो चार विदेशी नशेड़ी और इतने ही साधु महाराज के अलावा विशाल ग्लेशियर और निपट सन्नाटा पसरा हुआ था। यहां एक बात जरूर लिखूंगा कि ये सन्नाटा आप अधिक देर सहन नहीं कर सकते। कानों में अजीब जी शून्यता अनुभव होती है। निम्न वायुदाब और कम तापमान भी भ्रम और भय बढ़ाते हैं। जब हम गौमुख को दूर से देख रहे थे तो मुझे मटमैले से पहाड़ अजीब लग रहे थे। जब नजदीक पहुंचे तो पता लगा वो पहाड़ नहीं बल्कि ग्लेशियर था। जीवन में पहली बार ग्लेशियर देखा था मैंने। मैं भावुक सा हो रहा था। तब तक यति जी ने वापसी का बिगुल फूंक दिया।
मैंने सोनू से कहा मोटे! इन राकससां गेल आपणी कोनी खटावै, भजा-भजा आपणा मोर बणा देंगे।
सो मैंने उनसे कहा कि आप लोग चलो हम आ जाएंगे।
इससे पहले भोजवासा आने से पहले हम इतना थक गए थे कि सोनू कहने लगा जीजू हम भोजवासा रुक जाते हैं। मैंने कहा कि अगर भोजवासा जाएंगे तो काफी नीचे उतरना पड़ेगा। फिर वापसी में उतना ही चढ़ना भी होगा। हम ऐसा करेंगे कि आते वक्त भोजवासा रुक जाएंगे। सुबह वापस गंगोत्री।

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सो अब गौमुख पहुंच कर इतना जल्दी हम वापस जाने के मूड में तो कतई नहीं थे। गौमुख में ऐसी निस्तब्धता थी कि सामान्य गृहस्थ वहां ज्यादा देर नहीं रुक सकता। खैर हम थकान से बिल्कुल टूट चुके थे। मैंने सोनू से कहा मैं तो नाऊँगा। (नहाऊंगा)
सोनू मेरी ओर दीदे फाड़ के देखने लगा कि कहीं जीजू पर विपरीत माहौल ने कुछ गलत असर तो नहीं कर दिया जो पागलों वाली बात कर रहे हैं। एक तो हिमांक के नजदीक तापमान, दूसरे हवा की सायं-सायं। ऊपर से बर्फ के नीचे से आता हड्डियां गलाने वाला पानी। सोनू ने साफ मना कर दिया। मैंने उसे समझाया कि यहां स्नान करना बहुत पुण्य का काम है। लेकिन उसने साफ इंकार कर दिया। मैंने कहा ठीक है। पहले मैं नहा लेता हूँ। फिर देखते हैं। मैंने झटपट कपड़े उतारे और सोनू को पास में खड़ा करके उसका हाथ पकड़ पानी में पैर डाला। पानी ने बड़ी जोर से करंट मारा और करंट मेरे शरीर से होता हुआ सोनू को भी लगा। उसके हाथों से मेरा हाथ छूट गया और मैं धड़ाम से पानी में गिरा। पानी गहरा नहीं था लेकिन प्रवाह तेज़ था। इतनी देर में जो हिस्सा पानी में डूबा पहले गुलाबी फिर लाल और फिर हरा होते हुए नीला हो गया। ये सब कुछ ही पलों में हो गया था और तब तक सोनू सम्भल चुका था। उसने तुरंत मेरा हाथ पकड़ कर मुझे बाहर खींच लिया।
तब तक आसपास के लोग भी आ गए थे और मुझे काफी कुछ कहा भी सबने। लेकिन मेरी स्थिति अभी लकवाग्रस्त आदमी जैसी थी। सुन सब रहा था, समझ कुछ नहीं आ रहा था। कुछ महसूस भी नहीं हो रहा था। धीरे-धीरे शरीर नीले से हरा, लाल और गुलाबी होता हुआ सामान्य हुआ। मुझे कुछ हालात समझ आये और मैंने जल्दी से कपड़े पहन लिए।
अब जब मैंने सोनू की तरफ देखा तो वो रोने लग गया।
मैंने कहा चाहे रो चाहे झीक। नहाणा तो पड़ैगा बेट्टे। तन्नै मेरा आथ क्यूँ छोड्या था।
जब वो ज्यादा रोने गया तो मैंने कहा ठीक सै, तू पाणी मैं मत ना उतरै, गिलास गेल बाहर बेठ कै नै नाह ले। उसने बेचारे ने मेरे डर से दो-चार गिलास पानी अपने ऊपर डाले तो फिर बोला अब चाहे आप मुझे नदी में ही फेंक दो, लेकिन मैं और पानी नहीं डाल सकता। फिर मैंने जबरदस्ती दो गिलास उस पर डाले तो वो उठकर भाग लिया और दूर जाकर कपड़े पहन लिए।
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डेढ़ बज चुके थे। हमने अब चलने की सोची तो मेरी नज़र एक साधु पर पड़ी। बहुत विराट व्यक्तित्व, चेहरे पर अनोखा तेज़, कपड़े भगवा और बिल्कुल स्वच्छ। दाढ़ी सफेद और लम्बी। कद करीब 7 फीट, शरीर हृष्ट पुष्ट। वो आंखें बंद करके कुछ जाप कर रहे थे। उनको देखते ही मेरे मन में श्रद्धा जागृत हो गयी। मैंने सोनू से कहा कि उन महात्मा से आशीष लेकर जाने का मन कर रहा है। सोनू के सहमति पाकर हम उनके सामने जाकर बैठ गए। मन में श्रद्धा के साथ भय भी था कहीं अकारण क्रुद्ध न हो जाएं।
बीस मिनट के बाद उन्होंने आंखें खोली। मेरी नज़रों में नज़र डालते ही कहा- कितना समय हो गया शादी को?
मैं (हतप्रभ होकर)- छह वर्ष हो रहे हैं प्रभु इसी माह 21 को।
महात्मा- गंगोत्री में चीड़वासा से पहले किसी से भी पूछ कर फौजी बाबा के आश्रम में पहुंच जाना कल। मैं आज भोजवासा रुकूँगा। कल शाम तक आ जाऊंगा। उन्हीं के आश्रम में इन दिनों निवास करता हूँ। वहीं कुछ दवा दूंगा। भगवान ने चाहा तो अगले साल पुत्र प्राप्त करोगे।
मैं चरणवन्दन करके भाव विभोर होता हुआ गंगोत्री के लिए वापस चलने को उद्यत हुआ। 2 बजे हम चल दिये। नहाने के कारण या साधु महाराज के दर्शनों के कारण हमारा शरीर बिल्कुल स्वस्थ और चुस्त अनुभव कर रहा था। साधु बाबा का यूँ बिना बताए मेरा मन पढ़ लेना हमें चमत्कार लगा। मेरी शादी के छह साल बाद तक निसंतानता का दंश मुझे सताए देता था। महात्मा ने एक शब्द बोले बिना सीधे शब्दों में अगले दिन दवाई लेने हेतु आदेश करना मुझे हैरान कर गया। फिर तो हमारे पैरों को पंख लग गए। बीच में एक स्थान पर हमें समझ नहीं आ रहा था किधर जाएं। कोई दूर तक नज़र भी नहीं आ रहा था। हम काफी समय मूर्खों की भांति खड़े रहे। मैं कहता इधर जाना है तो सोनू कहता इधर से तो हम आये हैं जीजू। बड़ा मुश्किल समय था। तब मैंने कहा कि मैं सामने की ऊंची चट्टान पर चढ़ कर बताता हूँ अगर कुछ समझ आता है। फिर मैं एक चट्टान पर चढ़ गया। वहां से मुझे एक ओर भोजवासा नज़र आया तो मैंने सोनू से कहा हमें उधर जाना है। फिर मैं नीचे उतर आया। जब हम चलने लगे तो सोनू बोला जीजू उधर नही, आपने इधर कहा था।
मैं- तू बोतड़ू है के?
सोनू- जीजू सच में हमें उधर जाना है।
मैं- ओ बावली बूच, नुनै तै तो हम आये हाँ।
सोनू- अब आपको कैसे समझाऊं जीजू।
मैं- ठीक है, इस बार मैं ऊपर से जिधर जाने को बोलूं उधर इन पत्थरों से तीर का निशान बना देना।
फिर हमने काफी सारे पत्थर इकट्ठा करे और मैं दोबारा से चट्टान पर चढ़ गया। चट्टान पर आने-जाने में जो मेरा दम फूला मैं ही जानता हूँ। इस कारण मुझे गुस्सा भी बहुत आ रहा था। खैर मैंने ऊपर से उसे इशारा किया और एक बड़ा सा तीर उसने ज़मीन पर बना दिया। मैं नीचे आया तो देखा उसने फिर से तीर उल्टा बना रखा था। मैं ऊपर आ-जा कर परेशान हो चुका था। मैं उस पर गुस्सा हुआ।
सोनू- जीजू आपको भ्रम हो रओ है। मैं ऐसा क्यों करूँगो भला। मन्नै के यहीं मरणो है।? मैं तो ये पकड़ा कान। थारी गेल कभी ना जाऊंगो कहीं।
मैं- ठीक सै, ना मरिये मेरे गेल। फेर ईब नू बता कित जावां?
सोनू- कहीं ना जाणो, अठे ई तपस्या कर लांगा।
मेरा गुस्सा अब कम हो रहा था। मैंने सोचा कि सोनू ऐसा क्यों करेगा भला। जरूर ये वातावरण का असर है जो मुझे भ्रम भी हो रहा है और गुस्सा भी ज्यादा आ रहा है। फिर मैंने सोनू को मनाया और हम तीर के निशान को सही मान कर चल पड़े।  हम अंधेरा होने से पहले 7 बजे गंगोत्री पहुंच गए। गंगोत्री पहुंचते-पहुंचते थक कर निढाल हो गए थे। पंकज हमें उसी दिन वापस आया देख बोला कि हम आधे रास्ते से वापस आये हैं। तब मैंने उसे अपने फोटो और वीडियो दिखाए तो हैरान रह गया। बोला कि एक ही दिन में गौमुख आना और जाना हर किसी के बस की बात नहीं। मैंने उसे बताया कि हम पर यक्षों और यतियों का आशीष हो गया था। पंकज कान खुजाता रहा कि ऐसा क्या मिल गया था हमें जो हम एक ही दिन में गौमुख जाकर लौट आये।
उसे हैरान परेशान छोड़ हम खाना खाने चले गए। 75 रुपये में छककर खाना खाया और वापस आकर 8 बजते-बजते ऐसे चित्त हुए कि पंकज बतियाने के लिए देर तक दरवाज़ा पीट कर चला गया मगर हमें होश न आया।
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अचानक रात एक बजे किसी ने मेरा कमरा खटखटाया। मैंने उनींदे में दरवाज़ा खोला तो बाहर एक सरदार जी खड़े थे।
सरदार जी- प्रा जी मैं हुणे घर जाना पै गया। कमरे दे पैहे लओ ते मैं चल्लण।
मैं कुछ देर तक तो कुछ समझा नहीं। फिर याद आया कि पंकज का ऑफिस मेरे दरवाजे से लगता ही था। सरदार जी मुझे लॉज का मालिक समझ रहे थे। मैंने सरदार जी को बैठाया और पंकज का फोन लगाया। पंकज ने फोन उठाया नहीं। फिर मैं नीचे उसके कमरे में गया। उसने बड़ी मुश्किल से आंखें खोली और मैंने बताया कि कोई सरदार जाने की कह रहा है। उससे कितने पैसे लेने हैं। पंकज बोला सरदार जी ने तीन दिन के लिए कमरा ले रखा है। वो कहीं नहीं जाने वाले। आप जा कर सो जाओ। फिर वो पलट कर खर्राटे लेने लगा।
मुझे गुस्सा तो बहुत आया। एक तो इतनी ठंड, ऊपर से आधी रात का समय। उस पर कोई किसी की बात भी न सुने।
मैं गुस्से में कमरे में आया और सरदार जी को बोला कि उसने कहा है आपने तीन दिन के लिए कमरा लिया है। सो तीन दिन के पैसे देने पड़ेंगे।
सरदार जी- अजी तुस्सी फड़ो छेत्ती 1600 से हिसाब नाळ 4800 रुपये ते साड्डा खाड़ा छड्डो।
सरदार जी मेरी हथेली पर 4800 रुपए रखकर कमरा खाली कर परिवार समेत निकल गए। मैं रुपये लेकर सो गया।
खट खट
खट खट
मैं- कौन है यार इतनी सवेरे?
पंकज- मैं हूँ भाई जी। आपको सवेरे जल्दी नहीं जाना क्या? और वो सरदार जी रात बिना पैसे दिए भाग गए।
मैं- तो मैं तेरे पास गया तो था। तू ही नहीं उठा बिस्तर से। और हमने एक और दिन रुकने का सोचा है।
पंकज- लेकिन उन्होंने तो तीन दिन रुकना था ना। खैर अब तो नुकसान हो गया 1600 का।
मैं- ले पकड़ 4800 रुपए। तीन दिन के। मैंने उनसे ले लिए थे। और इतना आलसी होना भी सही नहीं। तभी लोग तेरी रजाई लेके भागते होंगे।
पंकज- 4800 रुपए! (हैरानी से) लेकिन भैया 1600 ही लेने थे।
मैं- तो बता देता फिर। मैं वहां खड़ा ठिठुरता रहा, तू खर्राटे लेने लगा।

पंकज को 4800 रुपये देकर हम नहा धोकर तैयार हो घूमने निकल गए। दोपहर का खाना खाकर हम फौजी बाबा के आश्रम को चल दिये। 12 बजे हम वहां पहुंच गए। वहां एक लड़का झाड़ू लगा रहा था। एक कुटिया में फौजी बाबा बैठे थे। हम उस लड़के से बतियाने लगे। बाबा थोड़ी देर में गर्म चाय लेकर हमारे पास आये और कड़क पंजाबी आवाज़ में हमसे चाय लेने को कहा। हमने सहमते हुए चाय ले ली। ठंड होने लगी थी सो आश्रम की धूप बहुत अच्छी लग रही थी।
फौजी बाबा- किससे मिलना है?
मैं- गौमुख में एक बाबा ने आपके आश्रम में मिलने के लिए कहा था।
फौजी बाबा- कौन वो बिलासपुरिया? क्या काम है उससे? वो ठग क्या देगा तुम्हें? (कड़क आवाज़ में)
मैं- (मिमियाते हुए) जी वो कोई दवाई देंगे, निःसन्तानता की।
बाबा- हुंह वो साला क्या देगा। ठग। भाग जाओ यहां से। अब ना तो कहीं कस्तूरी मिलेगी। ना भालू की नाभि। ऐसे में वो इतनी महंगी दवा तुम्हें मुफ्त में क्यों देगा! भालू की नाभि लाने वालों को सरकार आजकल जेल में डाल देती है। भाग जाओ।
मैं एक ओर जाकर बैठ गया। धूप ढलने लगी थी। हम धूप के साथ ही सरक रहे थे। फौजी बाबा केवल एक गर्म इनर ही पहने हुए थे। 
मैं- बाबा आपको ठंड नहीं लगती?
बाबा- तुम्हें भी नहीं लगेगी। 100 गलगल का रस निकाल कर लोहे की कढ़ाई में पकाओ। जब दही जितना गाढ़ा हो जाये तो थोड़ा देशी घी डाल दो। फिर खोए जितना गाढ़ा करके कांच के बर्तन में निकाल लो। एक उंगली सर्दियों में चाट लो जब ठंड लगे। फिर मेरी तरह नंगे रहना सर्दियों में। बच्चे को बच्चे की उंगली जितना चटाओ। बड़े को बड़े की उंगली जितना।
मैं- वो बाबा तो आये नहीं। आप ही दवा बता दो न बाबा।
फौजी बाबा- भाग जाओ यहां से।
तभी सामने से वही महात्मा आते हुए नज़र आये। उन्होंने हमें देखकर कहा कि देरी के लिए शर्मिंदा हैं। फिर झट से हमें अपनी कुटिया में ले गए जहां एक कोने में दीपक जल रहा था। कुछ चित्र रखे थे देवों के। बाबा ने दो तीन अलग-अलग डब्बों से कुछ दवाइयां मिलाई। सब मिलाकर सात पुड़ियाँ बनाईं और बछड़े वाली गाय के दूध के साथ लेने की हिदायत दी। अपना मोबाइल नम्बर देकर कहा कि कोई समस्या हो तो फोन कर लें। हमने कुछ देना चाहा तो स्नेह सहित मना कर दिया।
हम फौजी बाबा से आशीष लेकर चल दिये। बाबा ने कहा कि साल भर के बाद निःसन्तान न रहोगे। (अर्जुन अगले साल 15 अगस्त 2013 को पैदा हो भी गया।)
हम वहां से जल्दी से चल दिये और अंधेरा होते-होते उसी होटल पर खाना खाकर कमरे पर आकर सो गए। सवेरे जल्दी निकलना था सो पंकज को रात में ही 900 प्रतिदिन के हिसाब से 2700 रुपये दे दिए। उसने मना करते हुए कहा कि हम उसको पहले ही 3200 रुपए दे चुके हैं। और वो नहीं लेगा। मैंने फिर जबरन उसे 1000 रुपए दे दिए। इसने 100 रुपए दाणी को और 100 मुझे लौटा दिए। इस प्रकार हम कुल 900 में तीन दिन गंगोत्री में रुके और काफी अच्छे सम्बन्ध वहां बनाये। लेकिन समय बीतने के दौरान अब सम्पर्क नहीं रहा पंकज से। फेसबुक पर मित्र हैं लेकिन उसकी आईडी ऑपरेट नहीं हो रही लम्बे समय से।


-निम्बल

अब कुछ चित्र-
गौमुख पर बाबा जी के साथ

परिंदों को बिस्कुट खिलाते हुए।

हीरोगिरी

मार्ग में लकड़ी का पुल

परिंदों को बिस्कुट खिलाते हुए।

परिंदों को बिस्कुट खिलाते हुए।

परिंदों को बिस्कुट खिलाते हुए।

परिंदों को बिस्कुट खिलाते हुए।

परिंदों को बिस्कुट खिलाते हुए।

परिंदों को बिस्कुट खिलाते हुए।

परिंदों को बिस्कुट खिलाते हुए।