बारालाचा यात्रा
लेह जाने का प्लान बना रहे थे हम। बिशन अशोक, रिंकू, अजीतपाल जी और राजेश बाल्याण जी। राजेश जी का हमारे साथ ये पहला अनुभव था। रिंकू और अजीतपाल जी मेरे साथ बद्रीनाथ जा चुके हैं पहले। अशोक भी बद्रीनाथ गया है मेरे साथ एक बार। अशोक और बिशन के साथ मसूरी गया था मैं 2010 में।
हमारे समूह का परिचय-
मैं विक्की निम्बल, प्राथमिक शिक्षक, सफीदों, जींद। निवासी पिल्लूखेड़ा मंडी, जींद , हरियाणा।
मेरे साले साहब रिंकू कमलपोष, रेवाड़ी में लैब सहायक (निजी लैब में।) निवासी रेवाड़ी, हरियाणा।
बिशन सिंह, ए. एस. आई. बी.एस.एफ. झारखंड। निवासी बनिया खेड़ा, जींद। मेरे लाडले छोटे भाई (कज़न)।
अशोक, कम्प्यूटर व लैपटॉप मैकेनिक, पिल्लूखेड़ा। (कज़न)
अजीतपाल, लेक्चरर रसायन शास्त्र, सफीदों, जींद। निवासी खोखरी, जींद। (मेरे पुराने स्टाफ सदस्य।)
राजेश बाल्यान, अजीतपाल जी के साथ लेक्चरर सफीदों।
पानीपत स्टेशन पर
पहला दिन शुरुआत-
हमने पानीपत से चंडीगढ़ की रिजर्वेशन करवा ली थी पांच लोगों की 1 जून की। रिंकू पहले ही चंडीगढ़ पहुंच चुका था अपने मामा जी के यहां। हमारी बस भी रिजर्व हो चुकी थी रेडबस के द्वारा मनाली के लिए चंडीगढ़ से। बस रात सवा आठ बजे चलनी थी। हम घर से 1 जून को सवेरे 10.45 वाली ट्रेन से निकल लिए पानीपत के लिए।
उससे पहले मैंने अपने हाथों से कचौड़ियां बना ली थी। सफीदों से ट्रॉली बैग खरीद लिया था और गर्म कपड़ों समेत सारी पैकिंग पहली रात ही कर ली थी। हम पिल्लूखेड़ा से पानीपत के लिए ट्रेन से ठीक वक़्त पर रवाना हो गए। पानीपत से हमारी ट्रेन सवा चार बजे थी। हम चार घण्टे पहले पहुंच गए पानीपत । ट्रेन ठीक टाइम से चल पड़ी हमें सीट भी मिल गयी लेकिन असली एडवेंचर तो अभी शुरू होना था। दरअसल ट्रेन ने हमें चंडीगढ़ 7 बजे उतार देना था और हम स्टेशन से बसस्टैंड आराम से जा सकते थे। लेकिन ट्रेन ने हमें करीब पौना घण्टा लेट कर दिया और हमें स्टेशन पर ही पौने आठ बज गए। हमने उतरते ही ऑटो किया और जाम और रेडलाइट से होते हुए टाइम टू टाइम बसस्टैंड पहुंचे। जहां रिंकू अपने मामा जी और ममेरे भाई के साथ हमारा वेट कर रहा था। हमारे पास मुश्किल से 5 मिनट ही थे। हमने मामा जी का अभिवादन किया और बस में बैठ गए। मामा जी ने अपने हाथों से हम सबके लिए परांठे और पनीर की सब्जी बना के दी थी रिंकू को जो हमने रास्ते में खाई और अगले दिन सवेरे मनाली पहुंचने के बाद खत्म की बहुत ही टेस्टी और पर्याप्त खाना था सबके लिए। सफर लम्बा और उबाऊ था लेकिन रात होने के कारण ज्यादा मालूम नहीं हुआ हमें।
दूसरा दिन (मनाली)-
थोड़ा बहुत सो के और कसमसाते हुए सवेरे साढ़े पांच बजे हम मनाली पहुंच गए। वहां पहले से ही होटल बुक किया हुआ था हमने। द थंडरबोल्ट क्लब बसस्टैंड से करीब दो ढाई किलोमीटर दूर तो था लेकिन बहुत ही प्यारी और शानदार लोकेशन थी। आसपास कोई चिल्ल पों नहीं, कोई प्रदूषण या डिस्टर्बेंस नहीं। कुल मिलाकर हमें आनंद आ गया होटल पहुंचते ही। वहां हमने दो टेंट बुक किये हुए थे। एक में चार लोग और दूसरे में दो लोगों का सोने का बंदोबस्त था। हमें टेंट थोड़े छोटे लगे लेकिन स्टाफ ने हमें दूसरे कमरों में नहाने और आराम करने की छूट दे दी। हमने नहा-धोकर बाजार और मॉल रोड जाने का प्लान किया। उससे पहले थोड़ी-बहुत फोटोग्राफी की। फिर हम बाजार के लिए चल पड़े। होटल से निकलते ही हिडिम्बा मन्दिर था। हमने दर्शन किये और फोटोग्राफी की। मौसम में ज्यादा ठंडक नहीं थी और सफर की थकान भी अभी शेष थी। हमने घर से मनाली तक का प्लान बनाया हुआ था ये सोचकर कि आगे का प्लान मनाली पहुंचने पर बनाएंगे। सो हम सीधा ट्रेवल एजेंसी पहुंचे और आगे के लिए गाड़ी करने की सोची। लेकिन गाड़ियां किसी भी प्रकार से हमारे बजट में नहीं आ रही थीं। हमने टेक्सी यूनियन से पता किया। वहां भी कोई राहत नहीं मिली। 9000 तो वो लोग रोहतांग के ही मांग रहे थे। जो कि केवल 50-55 किलोमीटर ही था। जबकि हमारा उद्देश्य केलांग जाने का था जहां से लेह के लिए बस या गाड़ी करते। लेकिन गाड़ी वाले लेह के 24000 मांग रहे थे। हम इतना खर्च करने के कतई मूड में नहीं थे। हम बसस्टैंड गए और केलांग के लिए बस पूछी। लेकिन पूछताछ पर कोई था ही नहीं। हमने साथ लाया हुआ खाना खाने की सोची और बसस्टैंड में एक चाय वाले से चाय बनवाई। सबने जम कर परांठे उड़ाए और चाय भी बहुत अच्छी बनी थी। मैंने चाय के पैसे देते हुए चाय वाले से केलांग के लिए कोई बस हो ये जानना चाहा। लेकिन उसने हमें इंक़वायरी जाने को बोल दिया। इंक़वायरी पर कोई बैठा ही नहीं था। हम अंतिम प्रयास करने दोबारा इंक़वायरी पहुंचे। तो मैंने इंक़वायरी वाले बूथ से लगते बूथ पर एडवांस टिकट बना रहे कर्मचारी से ऐसे ही केलांग जाने के लिए कोई बस हो ये पूछ लिया। उसने बताया कि कल सवेरे जाएगी बस । मैंने किराया पूछा 270 रुपए। मैंने तुरन्त छः टिकट बुक करवा ली कुल 1620 रुपये में। कहां तो 9000 में रोहतांग तक गाड़ी जा रही थी और कहां हमें 1620 में केलांग की टिकट मिल गयी। सब बहुत खुश हुए और रिलैक्स भी।
अभी सुबह के साढ़े नौ ही बजे थे। हमारे पास पूरा दिन पड़ा था रिलैक्स करने के लिए और मनाली घूमने के लिए। हमारे पास कोई प्लान नहीं था मनाली का, ना ही हमें मालूम था कि आसपास क्या कुछ है देखने को। हमें यहाँ एक बात सबसे खराब यह लगी कि जिससे भी कोई जानकारी मांगो वो साफ इंकार कर देता। कोई भी ना तो ये बता रहा था कि आसपास कहाँ घूमना चाहिए और ना ही कुछ साधन ही उपलब्ध हो रहा था। हिमाचल मुझे हमेशा से बहुत प्रिय रहा है। मेरे साथ दो-चार ऐसे वाकये हुए हैं जिन्होंने मुझे हिमाचली और उत्तराखण्डी लोगों या यूं कहिये पहाड़ी लोगों का मुरीद बना दिया। लेकिन मनाली के लोगों का व्यवहार और उनका केवल पर्यटकों को लूटने का एकमात्र उद्देश्य मुझे इस बात के लिए मजबूर कर गया कि भविष्य में कभी मनाली नहीं आऊंगा। ना किसी को जाने की सलाह ही दूंगा। मनाली की एक बात और मुझे बहुत अखरी। वो है मनाली का बहुत अधिक प्रदूषित वातावरण। मैदानी लोग पहाड़ों में इस उम्मीद से जाते हैं कि वहां शुद्ध हवा, शांति और प्राकृतिक सुंदरता से मन को कुछ आराम मिलेगा। लेकिन मनाली में ऐसा कुछ नहीं है। जिधर भी जाओ गाड़ियों का धुंआ आपका पीछा नहीं छोड़ेगा। हवा में डीजल के जलने की ऐसी महक बसी हुई है कि उससे तो हमारा कस्बा हज़ार दर्जे अच्छा है। पानी पियो उसमें धुंए की महक, सड़क पर चलो उसमें आंखों की जलन और अपने होटल के कमरे में बैठो तो वहां बेहद गर्मी और घुटन।
हाँ एक बात हमारे साथ ये बढ़िया हुई के हमने जहां होटल बुक किया हुआ था वो जगह न केवल शांत थी अपितु बाकि मनाली के बनिस्बत प्रदूषण से भी मुक्त थी। मैं आभारी हूँ रेडबस का जिसने हमें इतना खूबसूरत होटल इतने कम दाम में उपलब्ध कराया। थंडरबोल्ट क्लब नाम का ये बेहद खूबसूरत होटल हिडिम्बा मन्दिर से थोड़ा आगे पड़ता है। भले ही मनाली बस अड्डे से काफी दूर है लेकिन अगर आपको शांति और प्रदूषण मुक्त जगह पर रुकना है वो भी कम पैसों में तो मैं आपको यहीं रुकने को सजेस्ट करूँगा।
खैर हमने केलांग के लिए टिकट्स ले ली थी और बिना किसी प्लान के मॉल रोड पर आकर बैठ गए। इधर-उधर देखने से पता चला कि नीचे नदी की साइड कोई वनविहार नाम से जगह है जहां कुछ समय बिताया जा सकता है। हम वहां गए। 20 रुपए में एक बन्दे की टिकट थी हम अंदर गए लेकिन कुछ झूलों के अलावा कुछ खास नहीं मिला। नीचे नदी में जाना प्रतिबंधित था। हमने घण्टा भर गुज़ारा और सबने कहा कि अब होटल जाकर कुछ एन्जॉय किया जाए। एन्जॉय कैसे करते हैं ये सब जानते हैं । हमारे पास बढ़िया ब्रांड (Old Smuggler) था सो हमने बाजार से खाने का काफी सामान ले लिया जिसमें पनीर से लेके नमकीन तक काफी कुछ रहा। एक दुकान से सामान ले रहे थे तो बड़ा इंटरेस्टिंग वाकया हुआ। मेरी एक आदत है कि मैं सामने महिला होने पर नज़र नीची ही रखता हूँ। दुकान पर एक महिला थी सो मैंने बिना देखे उनको आंटी कहा जिसका उन्हें बुरा लगा और हम जो भी सामान ले रहे थे उसे वो बड़े ही खराब अंदाज़ में पैक कर रही थी। उनका बर्ताव बहुत रूखा सा था जिसका कारण हम समझ नहीं पा रहे थे। मैंने जब काफी सामान ले लिया तो हार कर उनसे उनके ख़राब व्यवहार का कारण पूछा। उन्होंने जब चिढ़ कर कहा कि आंटी क्यों बोला तो हमें हंसी भी आई और हम झेंप भी गए। असल में वो हमारी ही उम्र की थीं और उन्हें बुरा लगना लाज़मी ही था। मैंने उनसे माफी मांगी और सामान लेके फूट लिए वहां से। बाद में हम सभी इस बात पर खूब हंसे।
दोपहर होते-होते हम वापस होटल आ गए और उनसे (होटल स्टाफ) परमिशन लेकर पहले तो अपना टेंट चेंज किया। फिर उन्होंने टेंट के बाहर मेज और कुर्सियां लगा कर बहुत ही बढ़िया प्रबन्ध कर दिया। हमने बैग से पुराने तस्कर (Old Smuggler) को आज़ाद किया; उसका पानी,सोडा और सॉफ्ट ड्रिंक से आदर सत्कार करके उसे गटक गए। फिर टेंट में घुस कर लम्बी तान के घोड़े बेचने लगे।
ये 2 जून का दिन था यानी हमारी यात्रा का दूसरा दिन। शाम को हम सभी उठे। बढ़िया ब्रांड का ये लाभ रहता है कि बाद में ना तो सर चकराता है और ना ही बदन टूटता है। हम सभी बिल्कुल फ्रेश थे और बाहर ठंड बढ़ गयी थी। दिन में जब हम सोये तो बहुत गर्मी थी लेकिन शाम होते-होते रजाई प्यारी लगने लगी थी। खैर हम गर्म कपड़े पहन कर एक बार फिर बाजार के लिए निकल पड़े और कुछ देर घूम कर होटल वापस आ गए । आकर डिनर ऑर्डर किया और बहुत ही टेस्टी खाना खाकर होटल वालों की पेमेंट कर दी क्योंकि सुबह हमें साढ़े चार बजे निकलना था केलांग की बस पकड़ने के लिए।
तीसरा दिन (रोहतांग और केलांग)-
हम जल्दी से उठ तो गए थे लेकिन इतनी सवेरे ना हमें पानी मिला गर्म ना फ्रेश ही हो पाए अच्छे से। सो हम अपना बैग उठाकर बस स्टैंड के लिए निकल पड़े। रास्ता सुबह बहुत प्यारा लगा हमें क्योंकि कुछ परिंदे बड़े ही मोहक अंदाज में वातावरण को जादुई बना रहे थे अपनी आवाज़ से। शुरू में तो मुझे लगा कोई बच्चा सीटी बजा रहा है लेकिन इतनी मधुर और स्वरबद्ध आवाज़ थी कि किसी बच्चे के बस की बात नहीं हो सकती थी। आगे जाने पर जब एक दो और परिंदों को बोलते सुना तब मुझे समझ आया कि क्या मामला है।
खैर हम समय से बसस्टैंड पहुंच गए। वहां से बस पता की और देखा बस ठसाठस भरी हुई थी। पैर तो दूर की बात तिल रखने तक की जगह नहीं थी। लेकिन हमारे पास टिकट और सीट नम्बर थे सो हम किसी तरह अंदर घुसे और हमारी सीटों पर कब्ज़ा किये बैठे लोगों को प्रेम सहित (हरियाणवी स्टाइल प्रेम) बाहर का रास्ता दिखाया।
लेकिन अभी कहानी बाक़ी थी। ड्राइवर और कंडक्टर ने उन सभी लोगों को नीचे उतार दिया जो बस में खड़े थे। बस तभी चली जब फालतू के लोग उतर गए और वही लोग रहे जो सीटों पर बैठे थे। ये बात मुझे पसंद तो आई लेकिन थोड़ा बुरा भी लगा कि काफी लोग बेचारे नहीं जा पाए बस से।
बस अपने निर्धारित समय से थोड़ा विलम्ब से चली लेकिन उसे रास्ते में कोई समस्या नहीं आई। थोड़ा सा चलने पर ही रास्ते में चाय नाश्ते के लिए बस रोक दी गयी और ढाबे की मालकिन ने बड़े प्यार से बहुत ही स्वादिष्ट और सस्ते परांठे खिलाए। मैं शुरू में कुछ खाने के मूड में नहीं था लेकिन जब थोड़ा चखा तो फिर उलटी वगैरा का डर नही लगा मुझे।
हमने एक-एक परांठा खाया जो आकार और वजन में दो परांठों से कम तो नहीं था। करीब आधा घण्टा रुक कर बस चल पड़ती है और मौसम में बड़ी तेजी से ठंडक बढ़ने लगती है। इसका कारण था कि हम ऊंचाई पर जा रहे थे। जाहिर है कि रोहतांग नज़दीक आता जा रहा था। रास्ते में अजीब तरह के सफेद और मटमैले चट्टानी टुकड़े सड़क के आसपास दिखाई देने लगे थे। जो एकबारगी तो जीवाश्म जैसे लगते थे। मानों प्रागैतिहासिक काल का कोई बड़ा सा जीव अब हड्डियों के ढांचे के रूप में पड़ा है। अचानक मैंने चीख कर बताया कि ये तो जमी हुई बर्फ है। इतना सुनते ही सारी बस उत्सुकता से उन आकृतियों को देखने लगी। धीरे-धीरे उनकी संख्या और आकार बढ़ने लगे और उनमें स्पष्टता भी गोचर होने लगी। धूप पड़ने पर उनके पिघलने की दर भी महसूस होने लगी थी। पहले तो दूर-दूर कोई छोटी आकृति नज़र आई थी अब लगातार और बड़ी बर्फीली चट्टानें दिखने लगीं। अचानक ही एक मोड़ से मुड़ने पर सड़क के दोनों किनारों पर बर्फ की दीवार शुरू हो गयी जो करीब एक से तीन फीट की ऊंचाई की थी। मोटाई पहाड़ की ओर अधिक थी लेकिन बस के दूसरी ओर करीब 1 फुट चौड़ाई होगी। धीरे-धीरे उस बर्फीली दीवार की ऊंचाई और चौड़ाई बढ़ने लगी जो बस से भी ऊंची हो गयी थी।
बस अपनी रफ्तार से चली जा रही थी और हम अपने स्मार्टफोन में ये हसीन मंज़र शूट करते जा रहे थे। बाहर इतनी ठंड हो गयी थी कि हाथ सुन्न होने लगे थे। सो ज्यादातर लोग बन्द शीशों से ही वीडियो बना रहे थे। रिंकू जबर लड़का है उसने खिड़की खोल कर बाहर से वीडियो बनाई। मेरी हिम्मत नहीं हुई सो मैंने ”हुस्न पहाड़ों का” गीत अपने फोन में लगाया और रिंकू के फोन के पास करके उसमें बैक ग्राउंड म्यूजिक देने लगा। अब रोहतांग आने को था और आखिरकार रिंकू की हिम्मत भी जवाब दे गई और उसने हाथ अंदर कर लिया। उसका हाथ नीला पड़ गया था और बेहद ठंडा भी।
ड्राइवर ने रोहतांग की सवारियां उतारी और पांच मिनट में बस आगे चल दी। सबका मन था कि वहां बस कुछ देर के लिए रुक जाती और वहां की बर्फ में सब लोग कुछ देर मस्ती कर लेते। लेकिन किसी ने ड्राइवर को कहा नहीं।
रोहतांग में इतनी बर्फ थी हर ओर कि सबका मन आहें भर रहा था। हवा सांय सांय करके बह रही थी और रोहतांग ऊंचा स्पॉट होने के कारण हवा के लिए कोई अवरोध नहीं था। सो हवा अपने पूरे घमंड, जोश और उग्रता के साथ चल रही थी। बल्कि ये कहा जाना चाहिए कि दौड़ रही थी।
मैं तो ये कहूँगा कि गोलीबारी कर रही थी। चारों ओर बर्फ और पागल सांड सी बहती हवा। ऐसे में भी हम सभी चाहते थे कि कुछ देर वहां वक़्त बिताते। लेकिन बस चल पड़ी और सभी मन मसोस के रह गए। कुछ देर बाद बिशन ने मुझसे कहा कि उसे पेशाब करना है। मैंने ड्राइवर को बस रोकने को कहा और उसने तुरंत जगह देख कर बस रोक दी। भले ही रोहतांग पीछे छूट चुका था लेकिन सारी बस खाली हो गयी और आसपास पड़ी थोड़ी बहुत बर्फ से सभी खेलने लगे। जिनको पेशाब करना था उन्होंने पेशाब किया। करीब 15 मिनट में बस दोबारा चल पड़ी तो ड्राइवर ने कहा कि अगर आप लोगों को बर्फ का इतना शौक था तो रोहतांग में क्यों नहीं कहा किसी ने। वहां आधा घण्टा रुक जाते हम।
ड्राइवर की बात सुन कर सभी दंग रह गए। सबके चेहरे पर पछतावा और उदासी साफ दिख रही थी। तब मैंने ड्राइवर से कहा कि हमें लगा आप नहीं रोकते। तो उसने कहा ऐसा कुछ नहीं है। हम काफी एडवांस चल रहे हैं। अगर आप कहते तो मैं वहां बस रोक लेता। तब मैंने उसे कहा कि ये उसकी ड्यूटी बनती है कि पूछ लेता सबसे। उसने अपनी गलती महसूस की।
खैर बस अपनी गति से दौड़ रही थी और आसपास के नजारे बदल रहे थे। हम लगातार चलते हुए करीब दस बजे केलांग पहुँच गए थे। वहां बसस्टैंड पर हमने आगे लेह के लिए बस का पता किया लेकिन वहां से अभी कोई बस शुरू नहीं हुई थी। हमें पता चला कि दो या तीन दिन में बस शुरू हो जाएगी। लेकिन हमारे पास इतना लंबा प्लान नहीं था। सो हमारा मन उदास हो गया। एक तो इतना लंबा सफर और फिर अब आगे का कोई रास्ता खुला नहीं था। हम बसअड्डे पर ही बैठ गए। क्योंकि लम्बे और उबाऊ सफर ने पहले ही तोड़ के रख दिया था हमें और अब आगे का सुन कर हमारी रही सही हिम्मत भी टें बोल गई। तभी एक और हमारे जैसा परेशान दिखने वाला लड़का मिला। लखनऊ से था हिमांशु नाम का लड़का और वो भी आगे जाना चाहता था। साथ में उसका साथी भी था। हमने आपस में अपना दर्द साझा किया और एक दूसरे के नम्बर्स शेयर किए। वो लोग तभी वापस हो लिए जबकि हमने वो दिन वहीं बिताने का प्लान बनाया।
कुछ देर सुस्ता कर हमने बैग उठाये और केलांग शहर का रुख किया। शहर ही कहूँगा लेकिन था छोटा सा ही। शांत, शीतल, मनोरम और अपेक्षाकृत कम देखा गया स्थान हम बसस्टैंड से एक छोटे और तंग रास्ते से होकर शहर में घुसे। केलांग को शहर कहते हुए मुझे अजीब लग रहा है क्योंकि उसमें हमारे शहरों जैसा न तो शोर था, न भीड़ थी और न ही विस्तार ही था। लेकिन फिर भी होटल, रेस्तरां, फ़ूड कैपिटल्स आदि पर्याप्त थे। हमने हिमांशु से पूछ लिया था कि कहां रुकना सही रहेगा। उसने जो जगह बताई हमें न तो सस्ती लगी और न ही पसन्द आई। सो हम वहां से और आगे चल पड़े। थोड़ा चलने के बाद हम थोड़े खुले इलाके में प्रविष्ट हुए। हमारे सामने हमें एक बोर्ड लगा नज़र आया जिसमें टेंट, खाना और ड्रिंक का मिला जुला प्रबन्ध नज़र आया।
केलांग भ्रमण ( 2 जून, 2017 )
हम पैदल चलकर थक गए थे इस लिए बाकी को वहीं सुस्ताने को बोलकर हम दो लोग उस बोर्ड़ से आकर्षित होकर ऊपर चढ़ गए। उसका नाम गार्डन कैफे था। एक ओर आमने-सामने बिल्कुल नए दो टेंट लगे थे। एक ओर छोटी सी रसोई और रसोई के पीछे लम्बा हाल नुमा बड़ा टेंट। बराबर में बड़ी-बड़ी छतरियों के नीचे मेज और कुर्सियां लगी थी। पास ही टॉयलेट भी था। हमें आता देख एक लड़का आया और हमसे मुख़ातिब हुआ। हमने पूछा हमें रुकने के लिए जगह चाहिए। कुल छह लोग हैं। उन लोगों ने 1200 रु. किराया बताया एक टेंट का। हमें वो ज्यादा लगा। उन्होंने 1000 में बात सही कर ली। हम सभी एक टेंट में घुस गए। उनसे दो गद्दे अतिरिक्त लगवाए और आराम करने लगे। इससे पहले हमने उनसे बोल दिया था कि हम शाम को थोड़ा एन्जॉय करना चाहेंगे। उन्होंने कहा सब प्रबन्ध हो जाएगा।
केलांग में हमारा टेंट (गॉर्डन कैफे)
मैंने नहाने के लिए कहा तो टेंट के पिछले हिस्से में ही अलग केबिन में नहाने का इंतज़ाम था। मैं झट से घुस गया और बर्फ जैसे ठंडे पानी में नहा लिया।
अब मौसम ठंडा होने लगा था। दोपहर हो गयी थी। केलांग बहुत ठंडा इलाका है। नहाकर हमने अशोक (कैफे का मालिक) से कहा कि सब कुछ नया क्यों है यहां? बिस्तर से लेकर बाल्टी तक। टेंट, तकिए और चद्दर आदि सब चकाचक। तो उसने बताया कि हम उसके दूसरे ही कस्टमर हैं। हम 3 जून को उसके पास पहुंचे थे और 28 मई को उसने ओपनिंग की थी। अशोक से मेरी अच्छी मित्रता हो गयी थी।
मैंने उसे बताया कि हम बर्फ और लेह के चक्कर मे इतना दूर आये थे लेकिन यहां कुछ मिला ही नहीं। न तो बर्फ और न लेह जाने के लिए बस। यहां भी कुछ देखने लायक नहीं। तो अशोक ने बताया कि आप अगर बर्फ ही देखना चाहते हैं तो मैं आपको बारालाचा जाने की सलाह दूंगा। वहां आपको इतनी बर्फ मिलेगी कि याद रखोगे। मैंने कहा रोहतांग जितनी मिलेगी?
अशोक हंसने लगा और बोला, “साहब रोहतांग में क्या बर्फ है, आप बारालाचा जाओ। वहां देखना बर्फ क्या होती है।“
मैं- “तो बताओ कैसे जाएं?”
अशोक- “मैं कर देता हूं साब जी आपका जुगाड़, मेरा भतीजा आपको अपनी जीप में ले जाएगा। आप तेल डलवा दीजिएगा।“
मैं- “अरे तेल से क्या होगा, हम उसको पूरी बुकिंग देंगे।“
अशोक- “पर साब जी वो पर्सनल रखता है गाड़ी, बुकिंग नहीं ले जाएगा वो। आप से दोस्ती हो गयी है सो मैं उसको बोलूंगा तो वो ले जाएगा। आपको जो सही लगे दे देना।
मैं- “तो बुलाओ उसे।“
अशोक- “पर बाऊ जी अब तो लेट हो गया है। वैसे भी मेरा भतीजा अभी बाहर गया है। आप अभी जाओगे तो वापस आने में देर हो जायेगी। रात के अंधेरे में पहाड़ पर गाड़ी चलाना सेफ नहीं।
मैं- “लेकिन अभी तो सारा दिन बाकी है।“
अशोक- “आप अभी ऐसा करो, इधर बहुत खूबसूरत मोनेस्ट्री है। आप ट्रैकिंग करके वहां जा आओ, शाम तक लौट आना।“
करीब सवा दो बज रहे थे। मैं टेंट में घुसा जहाँ बूढ़ा तस्कर बेसब्री से हमारी राह देख रहा था। मैं उसकी ओर देख कर मुस्काया तो बूढ़ा शरमा कर बैग में छुप गया। मैंने उसे बाहर आने को कहा तो नखरे करने लगा। मैंने भी फिर उम्र का लिहाज न करते हुए उसे गर्दन पकड़ कर बाहर निकाला और निर्वस्त्र कर दिया। फिर अशोक से कहा कि हमारी मेज लगा दी जाए। दो घण्टे में बूढ़ा तस्कर ढेर हो गया और हम शेर।
मॉनेस्ट्री जाने से पहले थोड़ी मस्ती
अब हमने अशोक के निर्देशानुसार स्थानीय मोनेस्ट्री (बौद्ध मठ) जाने का निर्णय लिया। हम सभी तुरन्त चल दिए। मोनेस्ट्री बहुत ऊंचाई पर थी। चंद्रा नदी के दूसरी ओर। हम रास्ता पूछते हुए करीब एक किलोमीटर चले फिर नदी के लिए नीचे उतरने लगे। बहुत तेज़ ढलान थी। हमारे फेफड़े फूल कर बाहर निकलने को हो गए। रास्ता बहुत शांत और खूबसूरत था। लेकिन था बहुत थकाने वाला। हम जब उतर रहे थे तो मेरे दिमाग में ये चल रहा था कि हमें वापस जाते हुए ये चढ़ाई भी चढ़नी पड़ेगी। जब उतरते हुए हमारा बुरा हाल हो गया तो वापस आते हुए क्या दुर्गति होगी? सो मैंने सबको अपना निर्णय सुनाया कि हम आगे नहीं जाएंगे। सब चौंक गए। मैंने उनको बताया कि नदी पार करके पहले तो हमें उतनी चढ़ाई करनी पड़ेगी जितना उतर कर आये हैं। अभी तो नदी भी दूर है। फिर मॉनेस्ट्री पहुंचने तक अंधेरा भी हो जाना है। सो हम वहां ज्यादा देर रुक भी नहीं पाएंगे।
इतना ही नहीं। अंधेरा होने पर पहले हमें मॉनेस्ट्री से नदी तक मुश्किल चढ़ाई उतरनी पड़ेगी। फिर नदी से वापस ऊपर जाने के लिए जो तीखी उतराई हम उतर कर आये हैं वही चढ़नी भी होगी। सबने सोचा और मेरी बात पर गौर किया। फिर सबने कहा कि हम कम से कम नदी तक तो जा आते हैं। मैंने देखा नदी अब ज्यादा दूर नहीं है और समय रहते हम वापस लौट सकते हैं। सो मैंने नदी तक जाने की इजाजत दे दी। लेकिन आगे पुल आ गया। नदी काफी नीचे थी। पुल से करीब 50 या 70 फ़ीट नीचे चंद्रा नदी धड़धड़ाती हुई बह रही थी। ऊपर पानी की महीन बूंदे आ रही थी। वहां ज्यादा जगह तो नहीं थी लेकिन फोटोग्राफी के लिए पर्याप्त थी। हमने वहाँ जम कर क्लिकिंग की। अब सबको वापस चलने का इशारा किया। हम वहां से चल दिये। असली खिंचाई अब शुरू हुई। चढ़ाई बहुत सीधी और थकाने वाली थी। थोड़ा सा चलते ही सांसें विद्रोह कर देती। हम बैठ जाते। फिर चलते, चार कदम बाद फिर से बैठना पड़ता। हालत ऐसी हो गयी थी कि लगने लगा आज तो ऊपर पहुँचना सम्भव नहीं हो पायेगा।
मॉनेस्ट्री के मार्ग पर प्रकृति द्वारा स्वागत
एक स्थान पर सभी बैठ जाते हैं; कुछ देर सुस्ताते हैं और फिर मैंने उनको बताया कि पहाड़ पर चढ़ने का सही तरीका क्या है। कदम जितने छोटे रखोगे थकान उतनी कम होगी। ये मैंने किसी पहाड़ी आदमी से ही सीखा था। जल्दी-जल्दी लेकिन छोटे कदम न तो सांस फूलने देते हैं न थकान होती है। सबने सुन तो लिया लेकिन ये काम इतना आसान नहीं। छोटे कदम रख कर चलने का अभ्यास किसी का नहीं था। मैं बद्रीनाथ में ऐसे ही वसुधारा तक जाता हूँ हर बार। इसलिए मुझे ऐसे चलने में कुछ अभ्यास हो गया है। फिर मैंने दूसरा तरीका अपनाया। भले ही सूरज अस्ताचलगामी हो रहा था लेकिन हमने जल्दबाज़ी न करने का निर्णय लिया। आसपास के दृश्य बहुत मोहक थे। हमने वीडियो बनाने और तस्वीरें लेने में अपना ध्यान बांटा तो रास्ता आसानी से छोटा होता चला गया। आखिर बस्ती के चिह्न नज़र आने लगे और हमारी आंखों में चमक बढ़ गयी। जिस रास्ते से हम गए थे और लौट रहे थे वो रास्ता दरअसल पगडंडी भर ही था। दोनों ओर घने झाड़, पौधे और ऊँची घास थी। अलग-अलग तरह के पहाड़ी फूल अपना मोहक रूप दिखा कर हम विश्वामित्रों का मन भटकाने का मेनकाई प्रयास पूरी शिद्दत से कर रहे थे। लेकिन हम बिन किसी आकर्षण के अपने टेंट को लक्ष्य कर बढ़े जा रहे थे।
भले ही हम मॉनेस्ट्री नहीं जा पाए; भले ही हम नदी तक नहीं पहुंच सके; भले ही हमने पहाड़ी का दूसरा छोर नहीं देखा नदी पार करके। लेकिन ये जो रास्ता हम थक कर, चूर होकर और लगभग बिखरने की स्थिति में पहुंच कर तय कर आये थे इसका अपना सौंदर्य था।
उस समय हमारी थकान ने हमें बहुत तोड़ डाला था लेकिन आज उसी को याद करके रोमांच भी हो आता है। ऊपर पहुंच कर टेंट या यूं कहिये गार्डन कैफे तक पहुंचने के मार्ग में छोटा सा बाजार भी आया। जिसमें जरूरत का सामान मिल जाता है। अब कुछ समतल मार्ग आ जाने से हमारे कदम तेज हो गए थे। हम अंधेरा होने से ज़रा पहले अपने ठिकाने पर पहुंच गए।
ठंड हो गयी थी सो सबने कड़क चाय की इच्छा जताई जो तुरन्त पूरी हो गयी।
चाय पर चकल्लस
मैंने अशोक से बात की तो उसने बताया कि उसका भतीजा इस बात से नाराज़ है कि हमने बहुत कम रेट्स में 6 लोगों के लिए एक टेंट लिया। सो उसने मना कर दिया हमें बारालाचा ले जाने से। मैंने अपने साथियों को वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो तुरन्त निर्णय लिया गया कि और किसी से बात की जाए। मैंने ये काम भी अशोक को ही दिया और उसने एक स्थानीय ड्राइवर को 5000 में बारालाचा ले जाने के लिए रेडी कर दिया जो सुबह 7 बजे हमारे पास पहुंचने वाला था। हम सब ने चैन की सांस ली और 9 बजे तक रात का खाना हो गया फिर हम सब सो गए।
चौथा दिन बारालाचा भ्रमण
सवेरे मैंने सबको टाइम से जग दिया और 7.30 पर हम केलांग से बारालाचा के लिए निकल पड़े। हमारे ड्राइवर का नाम गिरिधर था। जो स्थानीय किसान था और अपनी खुद की सूमो भी चलाता था। गिरिधर बहुत अच्छा गाइड भी था और ड्राइवर भी अव्वल दर्जे का। उसने हमें बताया कि केलांग में बला की सर्दी होती है और बर्फ में सब रास्ते बंद हो जाते हैं। सो ऐसे मौसम में जीवित रहने के लिए प्रत्येक घर में 40 लीटर देशी शराब और पर्याप्त मांस जरूर रखना पड़ता है।
हमने गिरिधर को कुछ शराब उपलब्ध कराने का निवेदन किया तो उसने कहा पूछ कर बता दूंगा। उसने ये भी बताया कि वहां जमीन की मिल्कियत बेटियों के नाम होती है। वो अपनी ससुराल में ही रहता है और खेती करता है। उस दिन भी मज़दूरों को काम पर लगा कर आया था गोभी की बुआई के लिए। वहां की नदी में पाई जाने वाली बहुत स्वादिष्ट लेकिन आकार में छोटी मछली का जिक्र भी किया लेकिन हम मांस मछली के परहेजी थे सो हमने इस बात पर ज्यादा गौर नहीं किया। फौजी की जीभ जरूर लपलपाई कुछ समय के लिए।
गिरिधर को अशोक ने हिदायत दे दी थी कि जहाँ भी कुछ देखने लायक हो गाड़ी रोककर हमें वो जरूर दिखाए। गिरिधर हमें रास्ते के गांवों के बारे में, सड़कों और खेतों के बारे में, वहां के मूल निवासियों के बारे में बताता चल रहा था। हम अपना ज्यादातर सामान होटल में ही छोड़ आये थे केवल जरूरी सामान और कुछ खाने का सामान ही साथ में लिया। पानी भी रख लिया था। केवल खाने का सामान ही था। पीने का सामान हम जल्दबाजी में होटल में ही छोड़ आये थे। जिस कारण मैंने बाकी लोगों को खूब खड़काया भी। फिर निर्णय हुआ कि मार्ग से कुछ खरीद लेंगे। लेकिन हमें कहीं कुछ नहीं मिला।
मैं सारे रास्ते भुनभुनाता रहा। चूंकि हम सभी ऐसे थे जो मैदानों में पीते नहीं। राजेश बाल्याण तो खैर पहाड़ों में भी नहीं पीते। लेकिन बारालाचा में बर्फ ज्यादा होगी सो वहां के लिए हम अपना माल होटल में ही भूल आये थे। खैर अब तो वापस हो सकते थे ना रास्ते में कुछ मिला। 8.40 पर हम दारचा क्रॉस कर गए थे।
कुछ देर बाद एक क्रिस्टल क्लियर ताल आया जिसे दीपक ताल कहा जाता है। हमने वहां कुछ चित्र लिए। कुछ समय बिताया। बिशन और अशोक ने नहाने की इच्छा जताई लेकिन मेरी लाल आंखें देख कर चुप कर गए। पानी इतना साफ था कि किसी का भी मन नहाने को कर जाए। लेकिन ठंडा इतना कि जान पर बन आए। हम वहां से जल्दी ही निकल लिए।
अब ऊंचाई बढ़ने लगी थी। छाती पर दबाव सा अनुभव होता और कानों में ढक्कन खुलने-बन्द होने लगे थे। कान रुक जाने पर जबाड़े को कस कर पूरा खोलने से कान खुल जाते हैं। हमारे पास AMS की दवा थी जो सबने ही ले ली। इस बीच गिरिधर ने हमें काफी कुछ समझा दिया था कि हमें न तो भागना है, न तेज़ी दिखाते हुए चढ़ना है। सांस फूलने की स्थिति में तुरन्त शांत हो जाना है और अपने शरीर के साथ कोई प्रयोग यहां नहीं करना है।
उसने ये भी बताया कि एक बार उसके साथ ऐसा वाकया हुआ जिसमें एक सवारी को जान से हाथ धोना पड़ा। उसके पास एक बुकिंग थी जिसमें कई लोग थे। उसने सबको यही सब समझा दिया था जो हमें बताया। लेकिन उनमें से एक आदमी बार-बार अपनी क्षमताओं से अधिक उछलकूद कर रहा था। जल्दी ही उसे समस्या होने लगी। गिरिधर ने उसे स्थानीय मिलिट्री अस्पताल में दिखाया जहाँ कुछ दवा देकर उनको वहां से जल्द नीचे जाने की हिदायत दी। लेकिन उन लोगों ने लेह जाने को वरीयता दी। वो आदमी भी अब थोड़ा बेहतर महसूस करने लगा था। सो उसने भी आगे चलने को कहा। गिरिधर ने बताया कि उनको नीचे जाना चाहिए लेकिन वो नहीं माने। बारालाचा से आगे सरचू नीचाई पर होने के कारण उसे सही लगने लगा था। इस कारण उसने अपनी उछलकूद फिर से शुरू कर दी। जल्दी वो ऐसी हालत में आ गया कि मिलिट्री के हेलीकॉप्टर से उसे अस्पताल ले जाना पड़ा जहां उसने बाद में जीवन से हार मान ली।
खैर हम थोड़ा अलग ट्रैक से वापस आते हैं। यहां मैंने उपरोक्त ज़िक्र इसलिए करना जरूरी समझा कि हम इस बात का ख़याल रखें कि धींगा मस्ती और सेल्फी जरूरी हैं, लेकिन जीवन के बदले में कतई नहीं। प्रकृति और परमात्मा से होड़ कभी नहीं करनी चाहिए और स्थानीय लोगों की बातों पर ध्यान देना चाहिए।
हमें महसूस होने लगा था कि हम बहुत ऊंचाई पर आ गए हैं। रास्ते में बर्फ बढ़ने लगी थी। पहाड़ों से बहता हुआ पानी जगह-जगह पर जमा हुआ दिख रहा था। कहीं-कहीं दो चार खेत और घर नज़र आ जाते थे जो अब दिखने बन्द हो गए थे।
हमारे पीछे एक कार भी थी। जिसमें दो पुरुष और दो महिलाएं थीं। एक बहुत छोटा बालक भी था। दूध पीने वाला करीब छह माह का बच्चा। हम लोगों ने एक खुले और शानदार व्यू पॉइंट पर अपनी गाड़ी रुकवाई। और बाहर के नजारे देखने लगे। तभी पिछली कार से उतर कर एक आदमी हमारे पास आया और बोला कि हमें मदद चाहिए। हम उनकी गाड़ी के पास गए तो बच्चे की माँ को घबराहट की शिकायत मिली। रिंकू (मेरा साला) दवाओं की थोड़ी बहुत जानकारी रखता है। क्योंकि वो लैब पर काम करता है सो उसने लक्षण पहचान लिए कि इनको AMS की समस्या है। हमने उसको डाईमोक्स की टेबलेट दी और उनको वहीं से लौट जाने की सलाह भी दी। लेकिन वो लोग नन्हे बच्चे की फिक्र भी न करते हुए आगे चले गए। अब बारालाचा 6 किलोमीटर से भी कम रह गया था। उससे पहले एक स्थान पर हमने देखा कि चाय, अंडे और मैगी के अलावा मट्ठी, बिस्किट्स, कोल्डड्रिंक आदि की एक दुकान वहां थी। टेंट लगा था जिसमें ठहरने का भी प्रबन्ध था। 200 रु. में एक आदमी। हमने वहां चाय बनवाई। ऑमलेट भी। लेकिन टेस्ट ठीक ठाक ही पाया। हम आगे बढ़ गए। वहां काम करने वाले एक लड़के से मैंने पूछा कि क्या यहाँ कोई बन्दोबस्त हो सकता है व्हिस्की का? तो उसने मना कर दिया।
आधा घण्टा चल कर एक बड़ी सी झील नजर आई। पानी गन्दा से था। गिरिधर ने बताया कि ये पानी क्रिस्टल क्लियर है लेकिन जमा हुआ है। इसे सूरज ताल कहते हैं। इसका मतलब हम बारालाचा पहुंच गए थे। हमने देखा आगे बड़े-बड़े ट्रक लाइन में खड़े थे। कई सारी कारें भी लाइन में थी। हम गाड़ी से उतर कर पैदल चल पड़े। गिरिधर ने फिर से हमें चेताया कि कोई धमाचौकड़ी नहीं। हमने कहा कि आप जाम खुलने पर आ जाना। हम तब तक बर्फ का मज़ा लेते हैं। सड़क के दोनों और बहुत सारी बर्फ थी। पांव रखते ही कई इंच नीचे धंस जाता। हमने तस्वीरें लीं। मैंने देखा सड़क के किनारे की बर्फ काली पड़ गयी थी। मुझे हैरत होने से पहले ही पता चल गया कि ये इन ट्रकों का धुआं है जो बर्फ को काला बना रहा था। मेरा प्रकृति प्रेमी मन आहत हो गया। लेकिन तभी मैने देखा अशोक भाग रहा था। बर्फ में वो गिरिधर की बताई बातें भूल गया था। जबकि वो दमे का मरीज है, सबसे ज्यादा उसी को संभल कर रहने की जरूरत थी। लेकिन बर्फ इतनी ज्यादा थी कि किसी का भी मन मचल जाए। मेर भी मचला। मैं भी बर्फ में कुलांचे भरने लगा। हम सड़क के उस हिस्से में आ गए जहां जाम नहीं था। तब तक गिरिधर भी जाम से निकल कर आ गया और हम दोबारा गाड़ी में सवार हो गए। दस मिनट चलते ही गिरिधर ने बताया हमारा डेस्टिनेशन आ गया है। आप लोग बर्फ का मज़ा लो, लेकिन मेरी हिदायतों को ध्यान में रखते हुए। मैं आपको यहीं पर मिलूंगा। आप लोग दो-तीन घण्टों में आ जाना।
बारालाचा यानी बर्फीला स्वर्ग। सब तरफ बर्फ ही बर्फ। सफेदी ही सफेदी। हम जब बर्फ पर चलते तो मर्रर मर्रर की आवाज होती। हम अपने साथ खाने का सामान लेकर बर्फ में उतर गए। नमकीन, चने, मीठी सेव, भुजिया आदि। मैंने वहां सबको पूरी आजादी दे दी थी। जिसका जो मन करे कर सकता है। बिशन और अशोक बहुत खुश हुए। वो दोनों एक पहाड़ को लक्ष्य कर चल पड़े। मैं और अजीत जी साथ में रिंकू और राजेश जी बर्फ में इधर उधर घूमने लगे। मैं वीडियो बनाने लगा। बिशन और अशोक काफी आगे निकल गए। जब वो लापरवाही से चले जा रहे थे तो अचानक बिशन के पांव के नीचे की कच्ची बर्फ टूट गयी और उसका एक पांव ठंडे पानी में चला गया। मेरी नज़र उन्हीं पर थी। मैंने उनको सावधानी रखने को कहा और बाकी सब भी उन्हीं के साथ हो लिए। दूसरी ओर एक ऊंचे पहाड़ पर हम चढ़ने लगे। खूब बर्फ थी। जब हम काफी ऊंचाई पर पहुंच गए तो बिशन ने ऊपर से फिसलना शुरू किया। बड़ा आनन्द आया। फिसल कर आना मज़ेदार था लेकिन वापस ऊपर पहुंचना काफी मशक्कत का काम था। मैंने खाने के सामान की थैली खाली करके उनको दे दी। उसे नीचे बिछाकर फिर उसपर बैठकर जो फिसले तो बड़ा मजा आया।
फिर तो अजीत जी, राजेश जी और बाकी सब भी बच्चे बन गए और खूब आनन्द हमने लिया। बिशन, अशोक और रिंकू ने कपड़े निकाल कर केवल अंतःवस्त्रों में फोटोसेशन भी किया। जब सब थक गए, मन तृप्त हो गया तो वापस चलने की सोचने लगे। हमने इस बात का ख़याल जरूर रखा कि किसी भी प्रकार का गन्द वहां नहीं फैलाया। वो जगह ऐसी थी जहां सिर्फ हमारे ही कदमों के निशान थे। बारालाचा में और भी कई गाड़ियां खड़ी थीं लेकिन हमारी साइड कोई नहीं आया था। इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण जो मेरी समझ में आया वो ये रहा होगा कि बारालाचा में निस्तब्धता बहुत थी। निस्तब्धता में इंसान रिस्क लेने से डरता है। ऐसी जगह नहीं जाता जो वीरान और एकांत में हो। हम भी कुल छह योग थे तो चले गए मैं अकेला इतना आगे जाने की हिम्मत नहीं कर पाता। कुछ ये भी मन में संकोच था कि बाकी लोग पता नहीं हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे। हमने साथ लाया हुआ खाने का सामान खाया और वापस गाड़ी के पास पहुंच गए। कुछ फोटोग्राफी उस पट्ट के पास की जो बारालाचा का साइनबोर्ड है।
फिर हम लोग गाड़ी में लद गए। लदना ही कहूंगा क्योंकि सभी बहुत थक गए थे। अजीत जी के सर में दर्द हो गया। रास्ते में उल्टी भी की उन्होंने। मैंने उनको दवा भी दी लेकिन वो निस्तेज से ही पड़े रहे। हम 1 बजे के करीब वापस हो लिए। गिरिधर ने बहुत बढ़िया पहाड़ी गाने बजाए और हम जल्दी से कोकसर पहुंच गए। जहां हमने लंच किया और फिर चल दिये। रास्ते में गिरिधर ने एक जगह दिखाई जहाँ से पिछले साल एक बुजुर्ग परिवार समेत गाड़ी नीचे खाई में गिरा बैठे थे। वो गाड़ी अभी भी वहीं पड़ी थी। कोई नहीं बच पाया था। उस स्थान पर एक लाल झण्डा गाड़ रखा था जहां से गाड़ी नीचे गिरी थी। हम सहम गए थे। शाम होते-होते हम केलांग वापस आ गए। अजीत जी और राजेश जी थोड़ी थकान महसूस कर रहे थे। सो उन्होंने आराम करना ठीक समझा। हम भोजनालय में टीवी पर भारत का क्रिकेट मैच देखने लगे। दो लोग जाकर बसस्टैंड से सुबह की गाड़ी पता कर आये। हमने केलांग से सीधी चंडीगढ़ की टिकट ले ली। बस अलसुबह चलनी थी।
जल्द ही खाना तैयार हो गया और हम खाकर सो गए। अशोक का जो हिसाब बनता था वो हमने रात में क्लियर कर दिया था ताकि सुबह हम बिना परेशानी निकल जाएं।
वापसी में थोड़ा परेशान हुए हम। सवेरे 5 बजे बस में बैठ कर रात 10.30 पर चंडीगढ़ उतरे। 18 घण्टे लगातार बस में बैठे रहना किसी सज़ा से कम नहीं था। फिर मनाली से निकलते ही भयंकर गर्मी और सड़क निर्माण के कारण धूल के गुबार हमारे धैर्य की परीक्षा ले रहे थे। सड़क निर्माण के नाम पर प्रकृति का जो अंधाधुन्ध विनाश किया जा रहा है वो एक दिन हमें भारी पाड़ेगा। मनाली चण्डीगढ़ मार्ग पर सड़कें चौड़ी करने के नाम पर पहाड़ के पहाड़ काटे जा रहे थे जिन्हें देख कर रुलाई फूट पड़ती है। हमने रास्ते में ही चंडीगढ़ से पानीपत ट्रेन की टिकट बुक कर ली थी फोन पर। ट्रेन 1 बजे के करीब थी। हम 11 बजे चंडीगढ़ स्टेशन पर पहुंच गए। वहां खाना सरकारी कैंटीन में खाया। सस्ता और स्वादिष्ट। 25 रुपए में पनीर की सब्जी और रोटियां। खाना खाने से पहले मैं स्टेशन प्रसाधन कक्ष में नहा लिया था। खाने के बाद ट्रेन आने तक स्टेशन पर सुस्ताए। फिर ट्रेन आई और हम बर्थों पर चित्त हो गए। पानीपत आने पर सवेरे 4 बजे उतर गए और सुबह 6 बजे पिल्लूखेड़ा की ट्रेन से घर।
पूरा सफर मज़ेदार, परेशानी भरा और खट्टे-मीठे अनुभवों वाला रहा। अशोक केलांग से बाद में भी बात होती रही। दोबारा जाएंगे तो प्रयास रहेगा उसी के पास रुका जाए।
इस प्रकार एक सफल और अनुभवों से भरे सफर की संतोषजनक समाप्ति हुई।