तारा देवी यात्रा (सितम्बर 2013)
भारत दर्शन व्हाट्सअप समूह के प्रमुख श्री संतोष मिश्रा जी के मार्गदर्शन में मैं अपना पहला यात्रा वृतांत लिख रहा हूँ। ज़ाहिर है अनुभव न होने पर कुछ गलतियां भी होंगी जिनमें तकनीकी और भाषाई गलतियां सम्भव हैं।
फिर भी प्रयास कर रहा हूँ।
23 सितम्बर 2013 को पिल्लूखेड़ा-पानीपत-कालका-तारादेवी सारा रास्ता ट्रेन द्वारा तय किया गया। वैसे बस द्वारा भी आराम से पहुंचा जा सकता है दिल्ली, पानीपत या चंडीगढ़ से। निकटतम एयरपोर्ट शिमला।
देखने लायक स्थानों में तारादेवी मन्दिर, भारत स्काउट एंड गाइड कैम्प, जंगल, शिमला, जाखू मन्दिर, तारादेवी मन्दिर से तारादेवी स्टेशन आते समय कठिन रास्ते पर प्राचीन और दुर्गम शिव मंदिर आदि गिने जा सकते हैं।
तारादेवी यात्रा -1
मुझे पता चला कि मेरे स्कूल को ‘कब एंड बुलबुल’ प्रशिक्षण के लिए 23 सितम्बर 2013 से 26 सितम्बर 2013 तक बच्चों को तारा देवी(शिमला) ले जाने के लिए चुना गया है। मैं स्कूल इंचार्ज था और मेरी जिम्मेदारी थी कि बच्चों को लेके जाऊं और सुरक्षित घर भी लेके आऊँ।
मैंने पांचवीं कक्षा से 5 बच्चे सिलेक्ट किये और उनको आवश्यक सामग्री के अलावा घरवालों से अनुमति लेने को कह दिया। ‘कब एंड बुलबुल’ स्काउटिंग का ही रूप है जिसमें प्राइमरी स्तर के बच्चों को प्रशिक्षित किया जाता है। 23 सितम्बर को सवेरे पिल्लूखेड़ा से 5 बजे हम ट्रेन में बैठे और 7 बजे से पहले पानीपत पहुंच गए । पानीपत से कालका 7.40 पर हिमालयन क्वीन ट्रेन से हम चल पड़े। ।
चलने से पहले कुछ आवश्यक सामान की लिस्ट हमें दी गयी थी जिसमें ड्रेस से लेकर टॉर्च, सुई, रस्सी, धागा, चद्दर आदि काफी सामान था। बच्चे रास्ते के लिए खाना भी ले आये थे। पानीपत से ट्रेन करीब पौने आठ बजे रवाना हुई और सवा ग्यारह बजे हम कालका स्टेशन पर उतरे। हमारे साथ दूसरे टीचर और बच्चे भी थे जिनमें से कुछ पहले भी तारा देवी आ चुके थे।
कालका से शिमला भी हिमालयन क्वीन नामक ट्रेन (टॉय ट्रेन) 12.10 पर चलनी थी जिसमें बला की भीड़ होती है। सो हमें पहले ही समझा दिया गया था कि पानीपत वाली ट्रेन से उतरते ही हमें भाग कर आगे खड़ी टॉय ट्रेन में सीटें हथिया लेनी हैं वरना करीब 6 घण्टे खड़े होकर जाना पड़ेगा। इसलिए हमने तय प्लान के अनुसार ट्रेन से उतरते ही मिल्खा सिंह को याद किया और सबसे पहले ट्रेन के पूरे डिब्बे को कब्ज़ा लिया। जिसमें काफी सारे बच्चे और टीचर एडजस्ट हो गए थे। दो साथी जाकर सबकी टिकट ले आये।
ट्रेन 12 बजकर 10 मिनट पर चली। थोड़ा चलते ही बाहर कुदरत के बिछाए हरे भरे दृश्य मन को मोहने लगे। बच्चे बहुत प्रसन्न थे। रास्ता सुंदर से सुंदरतम होता जा रहा था। चूंकि बरसात अभी लौटी ही थी सो हरियाली अपने यौवन पर थी। ट्रेन की गति अधिक नहीं थी और ज़रा-ज़रा सी देर में अगला स्टेशन आ जाता। टकसाल, गुम्मन, कोटि, सोनवारा, धर्मपुर, कुमारहट्टी और बड़ोग स्टेशन तक ट्रेन लगातार चलती रही। बड़ोग में इस ट्रैक की सबसे बड़ी सुरंग आती है। पूरे रास्ते में इतनी सुरंगें आती हैं कि गिनना मुश्किल है। फिर भी कालका स्टेशन पर इस सबका पूरा वर्णन और इतिहास लिखा हुआ है एक बड़े से पत्थर के पट्ट पर।
बड़ोग में ट्रेन कुछ अतिरिक्त समय तक रुकी। वहां पर खाने-पीने के लिए दुकानें हैं जहां से चाय, मट्ठी, बिस्कुट, क्रीम रोल, पकौड़े आदि लेकर हमने बच्चों को खिलाए। पिछले स्टेशन्स पर भी दुकानें थी लेकिन बड़ोग स्टेशन थोड़ा ज्यादा बड़ा स्टेशन है जहाँ पर ट्रेन भी क्रॉस होती हैं। चाय-नाश्ता करने के बाद ट्रेन फिर से चल पड़ी। अगला स्टेशन सोलन था। आगे सलोगड़ा,कंडाघाट, कनोह, कथीलघाट, शोघी।
शोघी से अगला स्टेशन तारादेवी है। स्टेशन से तुरंत पहले स्काउट हाल्ट है जहाँ गाड़ी रुकवाने के लिए शोघी स्टेशन से स्पेशल परमिशन लेनी पड़ती है। स्काउट हाल्ट और तारादेवी स्टेशन के बीच छोटी सी सुरंग है। हमने पहले ही परमिशन ले ली थी क्योंकि यदि गाड़ी हाल्ट पर ना रुकवाई जाती तो हमें बच्चों समेत या तो ग़ैरकानूनी रूप से सुरंग से होकर हाल्ट आना पड़ता या फिर करीब दो किलोमीटर पहाड़ पर से घूम कर हमें हमारे कैंप में जाना पड़ता। सुरंग से होकर आना न केवल गैरकानूनी है बल्कि खतरनाक भी है। अंधेरा, कीचड़, फिसलन तो पटरियों पर है ही सबसे बड़ा खतरा किसी भी तरफ से अचानक ट्रेन या मोटर कार (पटरी वाली) के आने का रहता है। सो हम स्काउट हाल्ट पर करीब साढ़े चार बजे उतरे और बच्चों को लेकर कैम्प साइट की ओर चल दिये। रास्ता थोड़ा सम्भल कर चलने का है क्योंकि ट्रेन से उतरते ही सीधे पहाड़ पर ही चढ़ना होता है करीब 300 से 500 मीटर।
तारादेवी यात्रा-2 (भारत स्काउट्स एंड गाइड कैम्प)
हम अपने बैग उठा कर साइट पर पहुंचे जहां लकड़ियों से बना काफी बड़ा शयनकक्ष, मेस, कक्षा कक्ष, अन्य कार्यालय आदि बने हुए थे। स्टोर रूम, रसोई, परेड ग्राउंड, ऑफिशियल स्टाफ के लिए स्पेशल शयनकक्ष आदि के अलावा थोड़ा और ऊपर जाने पर भी अलग से ठहरने के लिए कोठरियां बनी हुई थीं। हमने सबसे पहले अपना रजिस्ट्रेशन कराया और फिर कम्बल, गद्दे और चद्दरें लेकर बड़े शयनकक्ष में अपना स्थान सुनिश्चित किया। शयनकक्ष में डबलस्टोरी बैड बने हुए थे। हमने बच्चों को ऊपर के बैड दे दिए और स्वयं नीचे वाले बैड पर अपना सामान रख लिया।
हमें पूरी कार्यवाही में सन्ध्या हो गयी थी बच्चों को वहां छोड़कर साथी अध्यापकों ने आसपास के इलाके का मुआयना करने का प्लान बनाया। (हमारा कैम्प 4 दिन का था जिसमें दो दिन आने और जाने के और 2 दिन की ट्रेनिंग थी। उसमें भी एक दिन शिमला घूमने के लिए दिया जाता था और आधा दिन ऊपर तारादेवी मन्दिर में जाने के लिए छूट थी।)
हम अंधेरा होने से पहले आसपास घूम कर आ गए थे। तारादेवी स्टेशन से होते हुए हम बस अड्डे और बाजार में घूम के आये। वास्तव में हमारी कैम्प साइट जंगलों में थी जहाँ से बस्ती करीब दो किलोमीटर दूर थी। शयनकक्ष में हर तीसरे बेड पर चार्जिंग पॉइंट दिया हुआ था और रोशनी का भी पर्याप्त प्रबन्ध था। शाम होते ही मैं बच्चों को मेस की ओर बाहर ले आया जहाँ से एक ओर तारादेवी कस्बे के बेहद खूबसूरत नजारा दिख रहा था और दूसरी ओर शिमला का बहुत आकर्षक रूप नज़र आ रहा था। हिमाचल में मुझे एक बात खासतौर पर अच्छी लगी कि वहां मैंने कभी बिजली जाते हुए नहीं देखी। सो जंगलों में बने हमारे कैम्प से दोनों ओर बिजली के बल्ब इतने खूबसूरत दिख रहे थे मानों ऊपर और नीचे आसमान ही बिछा हुआ था। दूर शिमला की ओर देखने तो ये ही पता नहीं लग पा रहा था कि धरती कहाँ तक है और आसमान कहाँ से शुरू हो रहा है।
बच्चों ने अलग अलग पोज़ बना कर फोटो खिंचवाए और आंखें फाड़-फाड़ कर मानों सारी खूबसूरती को अपने भीतर कहीं उतार लेना चाह रहे थे। घण्टे भर में ठंड ने बताया कि वहां सिर्फ रोशनी ही नहीं है बल्कि वो स्वयं (सर्दी) भी अपना साम्राज्य फैला रही है। बच्चे गर्म कपड़े पहने हुए थे, मैं भी अपनी चद्दर ओढ़े था। सबने डट कर खाना खाया और खाने के दौरान ही हमें रात को आयोजित होने वाले कैम्प फायर बारे सूचित कर दिया गया।
घण्टे भर में सभी कैम्प फायर के लिए निर्धारित बड़े से हॉल में इकट्ठे हो गए जहाँ सैकड़ों लोगों के बैठने की जगह थी, एक ओर स्टेज बनी थी जिस पर रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। कुछ ही समय में कार्यक्रम शुरू हो गया जिसमें बहुत सारे टीचर्स ने गाने, कविता, चुटकुले और अन्य मनोरंजक गतिविधियों का आनन्द उठाया। करीब 12 बजे फायर ऑफ हुआ और हम निर्धारित स्थान पर आकर सो गए।
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तारादेवी यात्रा-3 (मन्दिर दर्शन और रोमांचक ट्रैकिंग )
अगले दिन यानी 24 को मंगलवार था। मंगल को ऊपर पहाड़ी पर स्थित माता तारादेवी के मंदिर में विशेष भंडारा लगता है। इसलिए आधा दिन की ट्रेनिंग के बाद सबको तारादेवी जाने की अनुमति दे दी गयी। हमारे कैम्प से तारादेवी मन्दिर तक सारा रास्ता ट्रेकिंग का है। बच्चों ने पानी की बोतल, छतरी, कुछ खाने का सामान और बाकी अपने हौसले को लेकर 11 बजकर 30 पर ट्रैकिंग शुरू कर दी। रास्ता बच्चों के लिहाज से थोड़ा कठिन कहा जा सकता है लेकिन उनकी उमंग और न थकने की काबिलियत के आगे ये महसूस नहीं हुआ। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ने लगी मौसम में ठंडक और आर्द्रता बढ़ने लगी। हम जल्दी से मन्दिर पहुंच जाना चाहते थे। बीच में पेशाब वगैरा के लिए बच्चे रुके तो बादल दिखाई दिए जो पहाड़ों में अभी जन्म ही ले रहे थे। सूरज चमक रहा था और मौसम खुशगवार था। 1 बजे से पहले हम मन्दिर पहुंच गए थे। वहां कुछ देर धूप में बैठे। फिर माता के दर्शन करके भंडारे में बैठ गए। 5 से ज्यादा लोग अलग-अलग खाद्य सामग्री बाल्टियों में भरकर बाँट रहे थे। एक आदमी प्लेटें देकर गया। फिर चावल, मीठा रसेदार पता नहीं क्या था जो मिला तो थोड़ा सा लेकिन बहुत स्वादिष्ट था। छोले, कढ़ी, दाल और दो सब्जियां और थीं। रोटियां नर्म और गर्मा-गर्म थीं। हमने छककर भोजन किया और फिर बाहर आकर वापसी का प्लान बनाया। किसी ने बताया कि एक और रास्ता भी है नीचे जाने का जो छोटा है। लेकिन साथ ही उसने चेतावनी भी दी कि बच्चों के साथ जाने की भूल मत कीजियेगा। रास्ता बहुत खतरनाक, रोमांचक और बहुत अधिक ढलवां होने के बारे में हमें बताया गया तो हमने पहले वाले रास्ते से ही जाने को वरीयता दी। हम मन्दिर प्रांगण में थोड़ी फोटोग्राफी करके वापस चल दिये। सूरज भी अब वापसी की ट्रेन में बैठ चुका था। मौसम में ठंडक और बढ़ने लगी। बच्चे हाफ बाजू की शर्ट पहने थे और स्काउटिंग वाला बड़ा रुमाल ही उनके लिए चद्दर का काम कर रहा था लेकिन अपर्याप्त रूप से। लगभग आधे रास्ते के बाद बादल अधिक गहरे हो गए और दिखना भी कम हो गया। असल में बादल हमारे चारों ओर छा गए थे। अंधेरा तो नहीं हुआ था लेकिन सफेद बादल धुंध जैसा माहौल बना रहे थे। ऐसा नज़ारा न कभी हमने देखा था न बच्चों ने। जब चलना मुहाल होने लगा तो हम सब एक बड़ी सी सीमेंट की बनी छतरी के नीचे बैठ गए। समय करीब ढाई बजे का था लेकिन बादलों ने एकाएक अंधेरा कर दिया था। छतरी के नीचे न हवा से बचाव हो रहा था न बादलों से। हमने नोट किया कि हमारे कपड़े टपकने लगे थे। बादलों ने हमें तरबतर कर डाला था। बच्चे ठंड से कांपने लगे थे। और कोढ़ में खाज के रूप में बारिश भी शुरू हो गयी। हवा ठंडी, भीगी और तेज़ थी। सभी बच्चे आपस में चिपक कर और सिकुड़ कर बैठ गए। बारिश तेज़ हो गयी थी। भले ही ठंड लग रही थी लेकिन सबको मज़ा भी आ रहा था।
मैंने बच्चों की ठंड दूर करने का मनोवैज्ञानिक तरीका अपनाया और सबको खयाली चाय बनाकर पिलाई। कैसे पहले आग जलाते हैं; पतीला चढ़ाते हैं; उसमें पानी, चीनी, चाय और दूध मिलाते हैं। और फिर गर्म चाय सुड़कते हुए पीते हैं। इतना सब करते-करते बारिश भी कम हो गयी और बच्चों को थोड़ा सहारा भी मिला भीतर से।
फिर हमने हनुमान चालीसा भी गाई जिसमें दो बच्चों ने पूरा और बाकी बच्चों ने यथासम्भव साथ दिया। चाय पीने और चालीसा गाने के बाद सबमें जोश आ गया और हल्की बूंदा बांदी में ही हम दोबारा से चल पड़े। हालांकि सबके पास छतरी थी लेकिन फिर भी सभी भीग तो गए ही थे।
जाते समय सूर्य चमक रहा था और बादल भी अंधेरे की बजाय सफेदी बढ़ा रहे थे लेकिन अब सूरज ढलान पर था और बादल कालापन लिए हुए थे। बीच में बारिश बढ़ भी जाती थी लेकिन हम सब इतने भीग चुके थे कि न तो छतरी का कोई लाभ हो रहा था ना भीगने का डर बाकी बचा था। मैंने बच्चों को आगे कर लिया था और मैं पीछे कैमरा और छतरी लिए उनका हौसला बढ़ाया चल रहा था। कहीं-कहीं पेड़ों के घने होने से अंधेरा अधिक महसूस होने लगता था। ढलान वाले रस्ते अब पानी से भरने भी लगे थे। बिजली, बादल, पानी और अंधेरा कुल मिलाकर डरावना और रहस्यमय वातावरण बना रहे थे। तभी हमें हमारे कैम्प के नजदीक आने के संकेत मिलने लगे। एक स्थान पर काफी सारे छप्पर नुमा ढांचे नज़र आये जिनके नीचे हम सब खड़े हो गए क्योंकि बारिश ने रौद्र रूप ले लिया था। ऐसे में पेशाब की हाज़त भी अधिक होने लगती है सो हम बारी-बारी से उससे भी निबट लिए।
कुछ देर बाद रोशनी बढ़ी तो पता चला अभी दिन ढलने में काफी समय बचा हुआ है। अंधेरा तो बादलों के कारण हुआ था। अब भारी बारिश बूँदा-बाँदी में बदल चुकी थी और हमारा कैम्प भी लगभग आ गया था। बच्चे उत्साह से कैम्प की ओर दौड़े और शयनागार में पहुंचकर जल्दी से अपने गीले कपड़े बदल डाले।
शाम को खाना खाकर जल्दी से बिस्तर में घुस गए हम। आज किसी का भी मन कैम्प फायर के लिए तैयार नहीं था।
तारादेवी यात्रा-4 (शिमला/ जाखू मन्दिर भ्रमण)
अगले दिन 25 को सवेरे कुछ ट्रेनिंग और नाश्ता करके हमें शिमला जाने की छूट थी। हमने बच्चों को तारा देवी स्टेशन से ट्रेन में बैठाया और जतोघ, समरहिल के बाद शिमला स्टेशन पर हम सब उतर गए। वहां से पैदल ही हम मॉल रोड और बाकी बाजार में घूमे। रिज पर फोटो सेशन किया और जल्दी ही जाखू मन्दिर के लिए चल दिये। जाखू मन्दिर ज्यादा दूर भले नहीं है लेकिन चढ़ाई एक-दम सीधी है। सीढ़ियां बहुत खड़ी हैं और सांस बहुत जल्दी फूल जाती है।
“कहा जाता है यहाँ संजीवनी बूटी लाते वक़्त हनुमान जी ने तपस्यारत यक्ष ऋषि को देखा था और परिचय जानने एवं संजीवनी का पता पूछने के लिए पर्वत पर उतरे थे उनके वेग से पर्वत आधा धरती में धंस गया था। आज भी उनके पदचिह्नों को संगमरमर रूप में सुरक्षित करके मन्दिर में रखा गया है। यहीं पर हनुमान जी की स्वयंभू मूर्ति भी है। एक बहुत ऊंची सीमेंट की मूर्ति भी बनाई गई है जो दूर-दूर तक दिखाई देती है।
स्काउट्स की ड्रेस में बच्चे और हम सब अनुशासित तरीके से कुछ ही देर में जाखू पहुंच गए। बंदरों का इतना बड़ा जमावड़ा मैंने और कहीं नहीं देखा।
बन्दर खाने पीने की चीजों पर एकदम से टूट पड़ते हैं सो हमने बच्चों को साफ बता दिया था कि कोई बच्चा खाने की कोई भी चीज़ अपने पास नहीं रखेगा। लेकिन कुछ ही देर में मैंने नोट किया कि बन्दर हमारे आसपास मंडरा रहे थे। मैंने बच्चों से सख्ती से पूछा तो एक बच्चे की जेब से बिस्किट्स निकले। जिनको तुरन्त उन बंदरों ने झपट लिया।
पास में ही एक बड़ा लड़का हीरो बनने के चक्कर में अपने हाथ में चने रखकर बंदरों को खिला रहा था। उसके साथी मोबाइल में उसकी वीडियो बना रहे थे। बंदरों ने झटपट चने खाकर पहले तो उस लड़के को घुरकी दिखाई और बाद बड़ी ज़ोर से उसको बांह पर काट खाया जिससे उसकी शर्ट फट गई और बाजू का मांस बाहर लटक गया। हमारे बच्चे ये सब देखकर सहम गए। हमने जल्दी से मन्दिर में मत्था टेका और वहां से खिसकने में भलाई समझी।
जाखू मन्दिर के पास ही बच्चों को एक दुकान में गरमा-गरम चाय और पकौड़े खिलाए। बच्चे खुश हो गए। वापस शिमला आकर हम शीघ्र स्टेशन के लिए चल पड़े जहां से तारादेवी के लिए ट्रेन थी। स्टेशन से पता चला कि इस वक़्त कोई पैसेंजर ट्रेन नहीं थी। सो हम जल्दी से बस स्टैंड पहुंचे और वापस आते-आते शाम हो गयी थी। हम बच्चों को लेकर सीधे भोजन करने पहुंच गए।
भोजनोपरांत सब प्रतिदिन की तरह कैम्प फायर के लिए एकत्र हुए और वहाँ मैंने ‘छोड़ो कल की बातें’ गाना सुनाया जिसको पर्याप्त तालियां मिलीं। फिर सब सो गए। शरीर थके होने से बिस्तर पर पहुंचते ही सवेरा हुआ मिला।
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तारादेवी यात्रा–5 (वापसी)
26 को वापसी थी इसलिए सवेरे सबका नाश्ता पैक करके दे दिया गया और बच्चों को लेकर हम इस बार सुरंग के रास्ते तारादेवी स्टेशन पर पहुंच गए। ठंड लग रही थी। सबने टिकट ली और ट्रेन के आनेपर सब उसमें चढ़ लिए। 11.30 से चलकर 4 बजे कालका हम उतर गए जहां से पानीपत के लिए 5 बजे पानीपत के लिए एकता एक्सप्रेस में हम सवार हो गए। पानीपत पहुंचते-पहुंचते साढ़े आठ बज गए और जब तक हमारी गाड़ी रुकती पिल्लूखेड़ा जाने वाली गाड़ी प्लेटफार्म से सरकने लगी थी। मैं बच्चों को लेकर ट्रेन के पीछे दौड़ा, गार्ड को मिन्नत भी की लेकिन ट्रेन नहीं रुकी और हम मायूस होकर स्टेशन से सड़क पर चल दिये वहां से काफी देर बाद एक निजी वाहन से हमें घर तक लिफ्ट मिली और रात 12 बजे के करीब हम घर पहुँच कर सो गए।
इस प्रकार मेरी पहली और रोमांचकारी तारादेवी/स्काउट ट्रेनिंग यात्रा सम्पन्न हुई।
-निम्बल
भारत दर्शन व्हाट्सअप समूह के प्रमुख श्री संतोष मिश्रा जी के मार्गदर्शन में मैं अपना पहला यात्रा वृतांत लिख रहा हूँ। ज़ाहिर है अनुभव न होने पर कुछ गलतियां भी होंगी जिनमें तकनीकी और भाषाई गलतियां सम्भव हैं।
फिर भी प्रयास कर रहा हूँ।
23 सितम्बर 2013 को पिल्लूखेड़ा-पानीपत-कालका-तारादेवी सारा रास्ता ट्रेन द्वारा तय किया गया। वैसे बस द्वारा भी आराम से पहुंचा जा सकता है दिल्ली, पानीपत या चंडीगढ़ से। निकटतम एयरपोर्ट शिमला।
देखने लायक स्थानों में तारादेवी मन्दिर, भारत स्काउट एंड गाइड कैम्प, जंगल, शिमला, जाखू मन्दिर, तारादेवी मन्दिर से तारादेवी स्टेशन आते समय कठिन रास्ते पर प्राचीन और दुर्गम शिव मंदिर आदि गिने जा सकते हैं।
तारादेवी यात्रा -1
मुझे पता चला कि मेरे स्कूल को ‘कब एंड बुलबुल’ प्रशिक्षण के लिए 23 सितम्बर 2013 से 26 सितम्बर 2013 तक बच्चों को तारा देवी(शिमला) ले जाने के लिए चुना गया है। मैं स्कूल इंचार्ज था और मेरी जिम्मेदारी थी कि बच्चों को लेके जाऊं और सुरक्षित घर भी लेके आऊँ।
मैंने पांचवीं कक्षा से 5 बच्चे सिलेक्ट किये और उनको आवश्यक सामग्री के अलावा घरवालों से अनुमति लेने को कह दिया। ‘कब एंड बुलबुल’ स्काउटिंग का ही रूप है जिसमें प्राइमरी स्तर के बच्चों को प्रशिक्षित किया जाता है। 23 सितम्बर को सवेरे पिल्लूखेड़ा से 5 बजे हम ट्रेन में बैठे और 7 बजे से पहले पानीपत पहुंच गए । पानीपत से कालका 7.40 पर हिमालयन क्वीन ट्रेन से हम चल पड़े। ।
चलने से पहले कुछ आवश्यक सामान की लिस्ट हमें दी गयी थी जिसमें ड्रेस से लेकर टॉर्च, सुई, रस्सी, धागा, चद्दर आदि काफी सामान था। बच्चे रास्ते के लिए खाना भी ले आये थे। पानीपत से ट्रेन करीब पौने आठ बजे रवाना हुई और सवा ग्यारह बजे हम कालका स्टेशन पर उतरे। हमारे साथ दूसरे टीचर और बच्चे भी थे जिनमें से कुछ पहले भी तारा देवी आ चुके थे।
कालका से शिमला भी हिमालयन क्वीन नामक ट्रेन (टॉय ट्रेन) 12.10 पर चलनी थी जिसमें बला की भीड़ होती है। सो हमें पहले ही समझा दिया गया था कि पानीपत वाली ट्रेन से उतरते ही हमें भाग कर आगे खड़ी टॉय ट्रेन में सीटें हथिया लेनी हैं वरना करीब 6 घण्टे खड़े होकर जाना पड़ेगा। इसलिए हमने तय प्लान के अनुसार ट्रेन से उतरते ही मिल्खा सिंह को याद किया और सबसे पहले ट्रेन के पूरे डिब्बे को कब्ज़ा लिया। जिसमें काफी सारे बच्चे और टीचर एडजस्ट हो गए थे। दो साथी जाकर सबकी टिकट ले आये।
ट्रेन 12 बजकर 10 मिनट पर चली। थोड़ा चलते ही बाहर कुदरत के बिछाए हरे भरे दृश्य मन को मोहने लगे। बच्चे बहुत प्रसन्न थे। रास्ता सुंदर से सुंदरतम होता जा रहा था। चूंकि बरसात अभी लौटी ही थी सो हरियाली अपने यौवन पर थी। ट्रेन की गति अधिक नहीं थी और ज़रा-ज़रा सी देर में अगला स्टेशन आ जाता। टकसाल, गुम्मन, कोटि, सोनवारा, धर्मपुर, कुमारहट्टी और बड़ोग स्टेशन तक ट्रेन लगातार चलती रही। बड़ोग में इस ट्रैक की सबसे बड़ी सुरंग आती है। पूरे रास्ते में इतनी सुरंगें आती हैं कि गिनना मुश्किल है। फिर भी कालका स्टेशन पर इस सबका पूरा वर्णन और इतिहास लिखा हुआ है एक बड़े से पत्थर के पट्ट पर।
बड़ोग में ट्रेन कुछ अतिरिक्त समय तक रुकी। वहां पर खाने-पीने के लिए दुकानें हैं जहां से चाय, मट्ठी, बिस्कुट, क्रीम रोल, पकौड़े आदि लेकर हमने बच्चों को खिलाए। पिछले स्टेशन्स पर भी दुकानें थी लेकिन बड़ोग स्टेशन थोड़ा ज्यादा बड़ा स्टेशन है जहाँ पर ट्रेन भी क्रॉस होती हैं। चाय-नाश्ता करने के बाद ट्रेन फिर से चल पड़ी। अगला स्टेशन सोलन था। आगे सलोगड़ा,कंडाघाट, कनोह, कथीलघाट, शोघी।
शोघी से अगला स्टेशन तारादेवी है। स्टेशन से तुरंत पहले स्काउट हाल्ट है जहाँ गाड़ी रुकवाने के लिए शोघी स्टेशन से स्पेशल परमिशन लेनी पड़ती है। स्काउट हाल्ट और तारादेवी स्टेशन के बीच छोटी सी सुरंग है। हमने पहले ही परमिशन ले ली थी क्योंकि यदि गाड़ी हाल्ट पर ना रुकवाई जाती तो हमें बच्चों समेत या तो ग़ैरकानूनी रूप से सुरंग से होकर हाल्ट आना पड़ता या फिर करीब दो किलोमीटर पहाड़ पर से घूम कर हमें हमारे कैंप में जाना पड़ता। सुरंग से होकर आना न केवल गैरकानूनी है बल्कि खतरनाक भी है। अंधेरा, कीचड़, फिसलन तो पटरियों पर है ही सबसे बड़ा खतरा किसी भी तरफ से अचानक ट्रेन या मोटर कार (पटरी वाली) के आने का रहता है। सो हम स्काउट हाल्ट पर करीब साढ़े चार बजे उतरे और बच्चों को लेकर कैम्प साइट की ओर चल दिये। रास्ता थोड़ा सम्भल कर चलने का है क्योंकि ट्रेन से उतरते ही सीधे पहाड़ पर ही चढ़ना होता है करीब 300 से 500 मीटर।
तारादेवी यात्रा-2 (भारत स्काउट्स एंड गाइड कैम्प)
हम अपने बैग उठा कर साइट पर पहुंचे जहां लकड़ियों से बना काफी बड़ा शयनकक्ष, मेस, कक्षा कक्ष, अन्य कार्यालय आदि बने हुए थे। स्टोर रूम, रसोई, परेड ग्राउंड, ऑफिशियल स्टाफ के लिए स्पेशल शयनकक्ष आदि के अलावा थोड़ा और ऊपर जाने पर भी अलग से ठहरने के लिए कोठरियां बनी हुई थीं। हमने सबसे पहले अपना रजिस्ट्रेशन कराया और फिर कम्बल, गद्दे और चद्दरें लेकर बड़े शयनकक्ष में अपना स्थान सुनिश्चित किया। शयनकक्ष में डबलस्टोरी बैड बने हुए थे। हमने बच्चों को ऊपर के बैड दे दिए और स्वयं नीचे वाले बैड पर अपना सामान रख लिया।
हमें पूरी कार्यवाही में सन्ध्या हो गयी थी बच्चों को वहां छोड़कर साथी अध्यापकों ने आसपास के इलाके का मुआयना करने का प्लान बनाया। (हमारा कैम्प 4 दिन का था जिसमें दो दिन आने और जाने के और 2 दिन की ट्रेनिंग थी। उसमें भी एक दिन शिमला घूमने के लिए दिया जाता था और आधा दिन ऊपर तारादेवी मन्दिर में जाने के लिए छूट थी।)
हम अंधेरा होने से पहले आसपास घूम कर आ गए थे। तारादेवी स्टेशन से होते हुए हम बस अड्डे और बाजार में घूम के आये। वास्तव में हमारी कैम्प साइट जंगलों में थी जहाँ से बस्ती करीब दो किलोमीटर दूर थी। शयनकक्ष में हर तीसरे बेड पर चार्जिंग पॉइंट दिया हुआ था और रोशनी का भी पर्याप्त प्रबन्ध था। शाम होते ही मैं बच्चों को मेस की ओर बाहर ले आया जहाँ से एक ओर तारादेवी कस्बे के बेहद खूबसूरत नजारा दिख रहा था और दूसरी ओर शिमला का बहुत आकर्षक रूप नज़र आ रहा था। हिमाचल में मुझे एक बात खासतौर पर अच्छी लगी कि वहां मैंने कभी बिजली जाते हुए नहीं देखी। सो जंगलों में बने हमारे कैम्प से दोनों ओर बिजली के बल्ब इतने खूबसूरत दिख रहे थे मानों ऊपर और नीचे आसमान ही बिछा हुआ था। दूर शिमला की ओर देखने तो ये ही पता नहीं लग पा रहा था कि धरती कहाँ तक है और आसमान कहाँ से शुरू हो रहा है।
बच्चों ने अलग अलग पोज़ बना कर फोटो खिंचवाए और आंखें फाड़-फाड़ कर मानों सारी खूबसूरती को अपने भीतर कहीं उतार लेना चाह रहे थे। घण्टे भर में ठंड ने बताया कि वहां सिर्फ रोशनी ही नहीं है बल्कि वो स्वयं (सर्दी) भी अपना साम्राज्य फैला रही है। बच्चे गर्म कपड़े पहने हुए थे, मैं भी अपनी चद्दर ओढ़े था। सबने डट कर खाना खाया और खाने के दौरान ही हमें रात को आयोजित होने वाले कैम्प फायर बारे सूचित कर दिया गया।
घण्टे भर में सभी कैम्प फायर के लिए निर्धारित बड़े से हॉल में इकट्ठे हो गए जहाँ सैकड़ों लोगों के बैठने की जगह थी, एक ओर स्टेज बनी थी जिस पर रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। कुछ ही समय में कार्यक्रम शुरू हो गया जिसमें बहुत सारे टीचर्स ने गाने, कविता, चुटकुले और अन्य मनोरंजक गतिविधियों का आनन्द उठाया। करीब 12 बजे फायर ऑफ हुआ और हम निर्धारित स्थान पर आकर सो गए।
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तारादेवी यात्रा-3 (मन्दिर दर्शन और रोमांचक ट्रैकिंग )
अगले दिन यानी 24 को मंगलवार था। मंगल को ऊपर पहाड़ी पर स्थित माता तारादेवी के मंदिर में विशेष भंडारा लगता है। इसलिए आधा दिन की ट्रेनिंग के बाद सबको तारादेवी जाने की अनुमति दे दी गयी। हमारे कैम्प से तारादेवी मन्दिर तक सारा रास्ता ट्रेकिंग का है। बच्चों ने पानी की बोतल, छतरी, कुछ खाने का सामान और बाकी अपने हौसले को लेकर 11 बजकर 30 पर ट्रैकिंग शुरू कर दी। रास्ता बच्चों के लिहाज से थोड़ा कठिन कहा जा सकता है लेकिन उनकी उमंग और न थकने की काबिलियत के आगे ये महसूस नहीं हुआ। जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ने लगी मौसम में ठंडक और आर्द्रता बढ़ने लगी। हम जल्दी से मन्दिर पहुंच जाना चाहते थे। बीच में पेशाब वगैरा के लिए बच्चे रुके तो बादल दिखाई दिए जो पहाड़ों में अभी जन्म ही ले रहे थे। सूरज चमक रहा था और मौसम खुशगवार था। 1 बजे से पहले हम मन्दिर पहुंच गए थे। वहां कुछ देर धूप में बैठे। फिर माता के दर्शन करके भंडारे में बैठ गए। 5 से ज्यादा लोग अलग-अलग खाद्य सामग्री बाल्टियों में भरकर बाँट रहे थे। एक आदमी प्लेटें देकर गया। फिर चावल, मीठा रसेदार पता नहीं क्या था जो मिला तो थोड़ा सा लेकिन बहुत स्वादिष्ट था। छोले, कढ़ी, दाल और दो सब्जियां और थीं। रोटियां नर्म और गर्मा-गर्म थीं। हमने छककर भोजन किया और फिर बाहर आकर वापसी का प्लान बनाया। किसी ने बताया कि एक और रास्ता भी है नीचे जाने का जो छोटा है। लेकिन साथ ही उसने चेतावनी भी दी कि बच्चों के साथ जाने की भूल मत कीजियेगा। रास्ता बहुत खतरनाक, रोमांचक और बहुत अधिक ढलवां होने के बारे में हमें बताया गया तो हमने पहले वाले रास्ते से ही जाने को वरीयता दी। हम मन्दिर प्रांगण में थोड़ी फोटोग्राफी करके वापस चल दिये। सूरज भी अब वापसी की ट्रेन में बैठ चुका था। मौसम में ठंडक और बढ़ने लगी। बच्चे हाफ बाजू की शर्ट पहने थे और स्काउटिंग वाला बड़ा रुमाल ही उनके लिए चद्दर का काम कर रहा था लेकिन अपर्याप्त रूप से। लगभग आधे रास्ते के बाद बादल अधिक गहरे हो गए और दिखना भी कम हो गया। असल में बादल हमारे चारों ओर छा गए थे। अंधेरा तो नहीं हुआ था लेकिन सफेद बादल धुंध जैसा माहौल बना रहे थे। ऐसा नज़ारा न कभी हमने देखा था न बच्चों ने। जब चलना मुहाल होने लगा तो हम सब एक बड़ी सी सीमेंट की बनी छतरी के नीचे बैठ गए। समय करीब ढाई बजे का था लेकिन बादलों ने एकाएक अंधेरा कर दिया था। छतरी के नीचे न हवा से बचाव हो रहा था न बादलों से। हमने नोट किया कि हमारे कपड़े टपकने लगे थे। बादलों ने हमें तरबतर कर डाला था। बच्चे ठंड से कांपने लगे थे। और कोढ़ में खाज के रूप में बारिश भी शुरू हो गयी। हवा ठंडी, भीगी और तेज़ थी। सभी बच्चे आपस में चिपक कर और सिकुड़ कर बैठ गए। बारिश तेज़ हो गयी थी। भले ही ठंड लग रही थी लेकिन सबको मज़ा भी आ रहा था।
मैंने बच्चों की ठंड दूर करने का मनोवैज्ञानिक तरीका अपनाया और सबको खयाली चाय बनाकर पिलाई। कैसे पहले आग जलाते हैं; पतीला चढ़ाते हैं; उसमें पानी, चीनी, चाय और दूध मिलाते हैं। और फिर गर्म चाय सुड़कते हुए पीते हैं। इतना सब करते-करते बारिश भी कम हो गयी और बच्चों को थोड़ा सहारा भी मिला भीतर से।
फिर हमने हनुमान चालीसा भी गाई जिसमें दो बच्चों ने पूरा और बाकी बच्चों ने यथासम्भव साथ दिया। चाय पीने और चालीसा गाने के बाद सबमें जोश आ गया और हल्की बूंदा बांदी में ही हम दोबारा से चल पड़े। हालांकि सबके पास छतरी थी लेकिन फिर भी सभी भीग तो गए ही थे।
जाते समय सूर्य चमक रहा था और बादल भी अंधेरे की बजाय सफेदी बढ़ा रहे थे लेकिन अब सूरज ढलान पर था और बादल कालापन लिए हुए थे। बीच में बारिश बढ़ भी जाती थी लेकिन हम सब इतने भीग चुके थे कि न तो छतरी का कोई लाभ हो रहा था ना भीगने का डर बाकी बचा था। मैंने बच्चों को आगे कर लिया था और मैं पीछे कैमरा और छतरी लिए उनका हौसला बढ़ाया चल रहा था। कहीं-कहीं पेड़ों के घने होने से अंधेरा अधिक महसूस होने लगता था। ढलान वाले रस्ते अब पानी से भरने भी लगे थे। बिजली, बादल, पानी और अंधेरा कुल मिलाकर डरावना और रहस्यमय वातावरण बना रहे थे। तभी हमें हमारे कैम्प के नजदीक आने के संकेत मिलने लगे। एक स्थान पर काफी सारे छप्पर नुमा ढांचे नज़र आये जिनके नीचे हम सब खड़े हो गए क्योंकि बारिश ने रौद्र रूप ले लिया था। ऐसे में पेशाब की हाज़त भी अधिक होने लगती है सो हम बारी-बारी से उससे भी निबट लिए।
कुछ देर बाद रोशनी बढ़ी तो पता चला अभी दिन ढलने में काफी समय बचा हुआ है। अंधेरा तो बादलों के कारण हुआ था। अब भारी बारिश बूँदा-बाँदी में बदल चुकी थी और हमारा कैम्प भी लगभग आ गया था। बच्चे उत्साह से कैम्प की ओर दौड़े और शयनागार में पहुंचकर जल्दी से अपने गीले कपड़े बदल डाले।
शाम को खाना खाकर जल्दी से बिस्तर में घुस गए हम। आज किसी का भी मन कैम्प फायर के लिए तैयार नहीं था।
तारादेवी यात्रा-4 (शिमला/ जाखू मन्दिर भ्रमण)
अगले दिन 25 को सवेरे कुछ ट्रेनिंग और नाश्ता करके हमें शिमला जाने की छूट थी। हमने बच्चों को तारा देवी स्टेशन से ट्रेन में बैठाया और जतोघ, समरहिल के बाद शिमला स्टेशन पर हम सब उतर गए। वहां से पैदल ही हम मॉल रोड और बाकी बाजार में घूमे। रिज पर फोटो सेशन किया और जल्दी ही जाखू मन्दिर के लिए चल दिये। जाखू मन्दिर ज्यादा दूर भले नहीं है लेकिन चढ़ाई एक-दम सीधी है। सीढ़ियां बहुत खड़ी हैं और सांस बहुत जल्दी फूल जाती है।
“कहा जाता है यहाँ संजीवनी बूटी लाते वक़्त हनुमान जी ने तपस्यारत यक्ष ऋषि को देखा था और परिचय जानने एवं संजीवनी का पता पूछने के लिए पर्वत पर उतरे थे उनके वेग से पर्वत आधा धरती में धंस गया था। आज भी उनके पदचिह्नों को संगमरमर रूप में सुरक्षित करके मन्दिर में रखा गया है। यहीं पर हनुमान जी की स्वयंभू मूर्ति भी है। एक बहुत ऊंची सीमेंट की मूर्ति भी बनाई गई है जो दूर-दूर तक दिखाई देती है।
स्काउट्स की ड्रेस में बच्चे और हम सब अनुशासित तरीके से कुछ ही देर में जाखू पहुंच गए। बंदरों का इतना बड़ा जमावड़ा मैंने और कहीं नहीं देखा।
बन्दर खाने पीने की चीजों पर एकदम से टूट पड़ते हैं सो हमने बच्चों को साफ बता दिया था कि कोई बच्चा खाने की कोई भी चीज़ अपने पास नहीं रखेगा। लेकिन कुछ ही देर में मैंने नोट किया कि बन्दर हमारे आसपास मंडरा रहे थे। मैंने बच्चों से सख्ती से पूछा तो एक बच्चे की जेब से बिस्किट्स निकले। जिनको तुरन्त उन बंदरों ने झपट लिया।
पास में ही एक बड़ा लड़का हीरो बनने के चक्कर में अपने हाथ में चने रखकर बंदरों को खिला रहा था। उसके साथी मोबाइल में उसकी वीडियो बना रहे थे। बंदरों ने झटपट चने खाकर पहले तो उस लड़के को घुरकी दिखाई और बाद बड़ी ज़ोर से उसको बांह पर काट खाया जिससे उसकी शर्ट फट गई और बाजू का मांस बाहर लटक गया। हमारे बच्चे ये सब देखकर सहम गए। हमने जल्दी से मन्दिर में मत्था टेका और वहां से खिसकने में भलाई समझी।
जाखू मन्दिर के पास ही बच्चों को एक दुकान में गरमा-गरम चाय और पकौड़े खिलाए। बच्चे खुश हो गए। वापस शिमला आकर हम शीघ्र स्टेशन के लिए चल पड़े जहां से तारादेवी के लिए ट्रेन थी। स्टेशन से पता चला कि इस वक़्त कोई पैसेंजर ट्रेन नहीं थी। सो हम जल्दी से बस स्टैंड पहुंचे और वापस आते-आते शाम हो गयी थी। हम बच्चों को लेकर सीधे भोजन करने पहुंच गए।
भोजनोपरांत सब प्रतिदिन की तरह कैम्प फायर के लिए एकत्र हुए और वहाँ मैंने ‘छोड़ो कल की बातें’ गाना सुनाया जिसको पर्याप्त तालियां मिलीं। फिर सब सो गए। शरीर थके होने से बिस्तर पर पहुंचते ही सवेरा हुआ मिला।
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तारादेवी यात्रा–5 (वापसी)
26 को वापसी थी इसलिए सवेरे सबका नाश्ता पैक करके दे दिया गया और बच्चों को लेकर हम इस बार सुरंग के रास्ते तारादेवी स्टेशन पर पहुंच गए। ठंड लग रही थी। सबने टिकट ली और ट्रेन के आनेपर सब उसमें चढ़ लिए। 11.30 से चलकर 4 बजे कालका हम उतर गए जहां से पानीपत के लिए 5 बजे पानीपत के लिए एकता एक्सप्रेस में हम सवार हो गए। पानीपत पहुंचते-पहुंचते साढ़े आठ बज गए और जब तक हमारी गाड़ी रुकती पिल्लूखेड़ा जाने वाली गाड़ी प्लेटफार्म से सरकने लगी थी। मैं बच्चों को लेकर ट्रेन के पीछे दौड़ा, गार्ड को मिन्नत भी की लेकिन ट्रेन नहीं रुकी और हम मायूस होकर स्टेशन से सड़क पर चल दिये वहां से काफी देर बाद एक निजी वाहन से हमें घर तक लिफ्ट मिली और रात 12 बजे के करीब हम घर पहुँच कर सो गए।
इस प्रकार मेरी पहली और रोमांचकारी तारादेवी/स्काउट ट्रेनिंग यात्रा सम्पन्न हुई।
-निम्बल