
मन-आँगन सजे रंगोली से,
मन-मंदिर पावन ज्योति,
इस बार उजाला भीतर हो.
अंतस के गहन अँधेरे में,
धुंधली पड़ती पगडण्डी पर
बस एक नेह का दीप जले,
इस बार उजाला भीतर हो.
रिश्तों की उलझी परतों में,
उजली किरणों का डेरा हो,
हर मुख चमके निश्छल उज्जवल,
इस बार उजाला भीतर हो.
पिछली,बिखरी,उजड़ी,कडवी
बिसरें स्मृतियाँ जीवन की
अब नए स्वरों का गुंजन हो,
इस बार उजाला भीतर हो.
जीवन यात्रा के शीर्ष शिखर
आशीष भरे जिनके आँचल,
छाया दे हर नव अंकुर को,
इस बार उजाला भीतर हो.
प्रतिपल जीवन में उत्सव हो
हर दीप तेल और बाती का,
स्नेह पगा गठ बंधन हो,
इस बार उजाला भीतर हो.
साकार बने अब हर सपना,
अपनेपन का आकार बढे,
अब सब अपने ही अपने हो,
इस बार उजाला भीतर हो.
----प्रवीण उमेश मल्तारे
भोपाल मध्यप्रदेश.