Friday, July 12, 2019

जान बची सो लाखों पाए

जब हम घूमने निकलते हैं तो ईश्वर हमारे साथ होते हैं। वरना पहाड़ों पर प्रकृति और मौसम के अतिरिक्त रास्ते भी कब हमारी परीक्षा लेने लगें कहा नहीं जा सकता।

जान बची सो लाखों पाए

सितम्बर 2008 में हम करीब 13-14 लोग पहली बार बद्रीनाथ-केदारनाथ गए थे। मैं, पत्नी जी, दो मित्र सपरिवार, दो अन्य मित्रों व एक चचेरे भाई सहित कुल 12 लोग एक टाटा सूमो में घर से चलकर पहली शाम ऋषिकेश में रुके।

बहुत शानदार नज़ारा था बाबा काली कमली आश्रम, ऋषिकेश का। वहीं भोजन का भी प्रबन्ध था। सबने अच्छे से खाना खाया।

फिर अपने कमरों में जाने से पहले बाहर खुले में इकट्ठा हुए। साथ में लाया हार्मोनियम निकाला और शुरू हो गए। कई भजन, फिल्मी गीत और गज़लें गायीं। फिर सो रहे।

अगली रात नन्दप्रयाग में रुके। सवेरे मैं सूर्योदय से पूर्व उठा, बाकी लोगों को उठाया लेकिन चचेरे भाई के अतिरिक्त किसी ने बिस्तर न छोड़ा। हम दोनों पहाड़ियों में निकल गए और बहुत सुंदर सूर्योदय का आनन्द लिया।
नन्दप्रयाग के बाद बद्रीनाथ का मार्ग बहुत खतरनाक होने लगा था। उसी मार्ग पर एक जगह हमें एक सेब का पेड़ नज़र आया। सेबों से लदा हुआ लेकिन अधपकी थी। फिर भी हम मैदानी लोगों के लिए सेब को पेड़ से तोड़ कर खाना ही चरम रोमांच की स्थिति थी।

हमने पेड़ की मालकिन एक वृद्धा से अनुमति लेकर सेब तोड़ने शुरू किए। माता जी ने केवल 20 रुपये ही मांगे।
मेरे लिए पेड़ पर चढ़ना आसान नहीं था, भले ही ग्रामीण परिवेश से हूं लेकिन पेड़ पर चढ़ना मुश्किल है मेरे लिए। लेकिन दीपक हमारे देखते ही देखते पेड़ पर बन्दर की तरह चढ़ गया। बहुत सारे सेब तोड़े, खाये और गाड़ी में भी भर लिए।

मैंने नीचे एक छड़ी पड़ी देखी। मन में आया कि छड़ी की सहायता से अपने हाथों पेड़ से एक सेब तो तोड़ ही लेता हूँ। नीचे पड़ी छड़ी उठाई, हाथ लगाते ही मेरे हाथ पर जैसे सैंकड़ों मधुमक्खियों ने डंक मार दिए। मैं चिल्लाता हुआ इधर-उधर भागने लगा। लेकिन किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए।

मेरी हालत देखकर वो वृद्ध माताजी बोली- "सिंघाड़ा लगाओ।"

मैं- “सिंघाड़ा? वो क्या होता है?”

माता- "अरे सिंघाड़ा! नाक से जो निकलता है।"

हम माता जी का इशारा समझ कर छी: छी: करने लगे।

माता गुस्से में कहने लगी कि जो मर्जी करो, इलाज बताया तो छी: छी: करते हो।

मैं जब बहुत देर तड़पता रहा तो एक महिला साथी (आशिमा भाभी) ने अपने बैग से एक सौंदर्य क्रीम निकाली और मेरे हाथ पर लगा दी। कुछ देर में मुझे आराम मिला। वो छड़ी शायद बिच्छू घास की सूखी छड़ी थी। (पहाड़ों पर किसी भी पौधे को बिना ज्ञान छेड़ना नहीं चाहिए। बिच्छू बूटी की जड़ों के पास जंगली पालक उगा होता है जिसे रगड़ने से जलन और पीड़ा खत्म हो जाती है। लेकिन उस समय मुझे ये मालूम न था)

माता जी को 100 रुपए और देकर हम चल पड़े।*

गाहे-बगाहे कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं जो स्मृतियों में कैद हो जाते हैं।

अब रास्ता और भी खराब मतलब डरावना हो गया था। चढ़ाई तीव्र और एक ओर गहरी खाई के कारण मैं बहुत डर रहा था। इतनी ऊंचाई पर ये मेरा पहला अनुभव था। हम गाड़ी में पीछे वाली सीट्स पर बैठे थे। मैं अपने साथी की गोद में सर रखे और आंखें बंद करके कंपकम्पाता हुआ सफर काट रहा था। बाहर ठंड बढ़ गयी थी और बर्फ दूर पहाड़ों पर नज़र आने लगी थी। जीवन में पहली बार बर्फ देखकर मेरा ध्यान रास्ते से हट गया और मैं वादियों का आनन्द लेने लगा।

रास्ता ऐसा था कि कई स्थानों पर जेसीबी खड़ी थी। एक गाड़ी निकलती; उसके कारण मार्ग की मिट्टी धंस जाती। तुरन्त जेसीबी उस धंसाव को पाट देती। फिर अगली गाड़ी निकलती। मार्ग संकरा भी बहुत था। एक बार में एक तरफ जाने वाली गाड़ियों को निकाल रहे थे। फिर दूसरी तरफ से आ रही गाड़ियों को एक-एक करके निकालते। ये सब देखकर बहुत ज्यादा ठंड में भी सभी को पसीने आ रहे थे।

अचानक एक मोड़ पर ड्राइवर ने जोर से ब्रेक लगाए। कारण सामने से आने वाला एक ट्रक था। पहाड़ों पर नियम होता है कि चढ़ाई पर चढ़ने वाली गाड़ी को रास्ता देना प्राथमिकता होती है। लेकिन उस ट्रक के ड्राइवर ने इस नियम का पालन नहीं किया और हमारी गाड़ी को झटके के साथ रुकना पड़ा। जिसके कारण गाड़ी का मोशन टूट गया और ब्रेक छोड़ते ही गाड़ी पीछे सरकने लगी। हम सभी चेतना शून्य हो गए। ड्राइवर समेत किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। सबके सफेद पड़े चेहरे आज भी स्मृतियों में ज्यों का त्यों हैं। ब्रेक लगे होने पर भी गाड़ी इंच-इंच पीछे सरक रही थी। हम पत्थर बने खाई में गिरने का इंतज़ार कर रहे थे। किसी को भी जैसे होश ही नहीं था। वैसे भी एक साइड वाले खाई के कारण अपनी खिड़की नहीं खोल सकते थे और दूसरी साइड में महिलाएं बैठी थीं जो सिवाए चीखने के और कुछ नहीं कर रही थीं।

अचानक बिजली की गति से मैंने पिछला द्वार खोला। बाहर कूदा और इधर-उधर से पत्थर चुन कर गाड़ी के पहिये के नीचे अड़ाने लगा। लेकिन पत्थरों का आकार ऐसा था कि गाड़ी उनके ऊपर से सरक जाती। मैं लगातार पत्थर अड़ा रहा था लेकिन गाड़ी का सरकना बन्द न हुआ। हैरानी की बात थी कि अभी तक भी अन्य कोई गाड़ी से उतरा नहीं था। सब सुन्न हो गए थे। आखिर में एक पत्थर थोड़ा बड़ा मिला और उसे अड़ाने के बाद मैंने अपना घुटना मोड़ कर जंघा भी पत्थर के बाद सटा ली। तब तक गाड़ी स्थिर हो गयी और बाकी लोग भी तेजी से नीचे उतर गए। फिर सबने मेरी मूर्खता पर मुझे डांटना शुरू किया।

हीरो बनने के लिए यही जगह मिली तुझे?

अगर पहिया तेरी जांघ पर चढ़ जाता तो कहां उठाये फिरते तुझे?

अरे जब गाड़ी पत्थरों से न रुकी तो क्या तेरे पैर अड़ाने से रुक जाती?

सब मुझे सुनाए जा रहे थे। बाहर का तापमान बहुत ठंडा था। इस कारण सबके पसीने (डर के मारे जो आ गए थे।) सूखने लगे। मेरे भी दिल की धड़कनें अब सामान्य हो गयी थीं। मैं मुस्कुराता हुआ खुद को संयत कर रहा था।

पहाड़ी हवा मेरे बालों और चेहरे से टकराती हुई बह रही थी। गज़ब का समां था। इतनी राहत मैंने पहले कभी अनुभव नहीं की थी।

गाहे-बगाहे ऐसे लम्हे जीवन में आ जाते हैं जिन्हें याद करके आप कभी भी अपने रोंगटों की कसरत करा सकते हो।

-निम्बल