Monday, December 07, 2020

शेष स्वरूप श्रीहरि दर्शन

सन 2008 के सितंबर माह की बात है। हम कुल बारह लोग अपनी पहली बद्रीनाथ यात्रा पर थे। टाटा सूमो में मैं अपने चचेरे भाई मुकेश के साथ पीछे की सीट पर बैठा था।
पहली बार ऋषिकेश से आगे आया था। इतने ऊंचे पहाड़ देखकर मन बहुत घबरा गया था।
तिस पर उस समय रास्ते इतने खराब, खतरनाक और डरावने थे कि मेरी जान हलक में आ गयी थी

ऐसा नहीं था कि मैं ईश्वर को न मानता था। लेकिन डर, घुमावदार रास्ते और गाड़ी के हिचकोले मुझे इतना समय ही नहीं दे पा रहे थे कि मैं डर को भूल ईश्वर को याद करूँ और कुछ शांति अनुभव करूँ। मैं बस अपने भाई की गोद में सर रखे घबराया और परेशान हाल सफर पूरा होने को प्रतीक्षित था।

मेरी हालत देख छोटे भाई ने कहा, "भाई! आप ईश्वर को मानने वाले हैं, श्री कृष्ण आपके मन में/जिह्वा पर सदैव विराजते हैं। उन पर भरोसा कीजिये! उन्हें स्मरण कीजिये। निश्चय ही आपको शांति अनुभव होगी।"

भाई की बात सुनकर मैं आंखें बंद करके ईश्वर के रूप को स्मरण करने लगा। आसान तो नहीं था लेकिन प्रभु कृपा से मेरा ध्यान लग गया। अचानक एक दिव्य अनुभव हुआ। शरीर हल्का सा हो गया और सम्भवतः मेरी आँख लग गयी। मुझे गाड़ी तो चलती अनुभव हो रही थी पर ऐसा भी लग रहा था कि मैं सो रहा हूँ और स्वप्न देख रहा हूँ।

मैंने देखा पहाड़ डरावने नहीं लग रहे। चित्त शांत हो गया। फिर एक बहुत बड़ा अजगर या कहिये साक्षात शेषनाग सभी पहाड़ों के ऊपर तैरते हुए मेरी ओर आ रहे थे। मैं बिना किसी भय से उनके दिव्य विराट स्वरूप को निहार रहा हूँ। उनके शरीर पर चमकदार शल्कीय उभार तक मुझे स्पष्ट गोचर हो रहे थे। सामान्य अवस्था में सांप से कोई भी डरता ही है। (हालांकि मैं इस मामले में थोड़ा निडर हूँ और अनेक अवसरों पर सर्पों को हाथों में पकड़ा भी है) लेकिन मुझे न भय अनुभव हो रहा था और न सर्प को सर्प रूप में देख रहा था। वह अलौकिक सर्प हमारी गाड़ी के आसपास, चारों ओर, ऊपर-नीचे देर तक हमारे साथ-साथ हवा में तैरता हुआ चल रहा था।

मेरे शरीर के रोएं धनात्मक आवेश से पुलकित थे। मन की जो स्थिति थी उसे शब्द नहीं दिए जा सकते। ये आनन्द किसी अन्य स्थिति में अनुभव नहीं किया जा सकता।

#देवदर्शन की कोई तुलना नहीं हो सकती।

अचानक भाई की रोमांच से भरी आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी।

“भाई! भाई! उठो! भाई उठो! मैंने अद्भुत स्वप्न देखा।”

मैं हैरान होकर भाई (मुकेश) के चेहरे को देख रहा था। उसके चेहरे पर अद्भुत चमक,  दिव्यता और रोमांच स्पष्ट दिख रहा था।

सब उसकी ओर देखने लगे।

तभी मैंने कहा, “अरे मुझे सुनो पहले। मैंने साक्षात श्रीहरि के दर्शन किये हैं।“

मुकेश- “आपने श्रीहरि को देखा! मैंने साक्षात उनके सेवक शेषनाग जी को देखा।“

मैं- “शेषनाग! तुमने शेषनाग जी को देखा? अरे मैंने देखा उनको तो।“

बाकी सब आश्चर्य से हम दोनों को सुन/देख रहे थे।
स्वप्न के बारे में एक वाक्य मैं बोलता दूसरा मुकेश भाई।
कैसा अचंभा था! दोनों भाइयों ने लगभग एक ही स्वप्न एक ही समय में देखा। दोनों पर स्वप्न का एक जैसा ही प्रभाव था।
वैसी दिव्यता मैंने जीवन में पुनः कभी अनुभव नहीं की। आगे की यात्रा में न भय था न परेशानी। उल्टियां भी बन्द हुई और रास्ते की सुंदरता को भी मैं निहारता हुआ श्री बद्रीधाम पहुंचा। दर्शनों में भी आनन्द आया।
बद्रीनाथ मंदिर के गर्भगृह में भी एक दिव्य अनुभव हुआ था जिसका वर्णन शायद पहले किसी शृंखला में कर चुका हूँ।

इस प्रकार मुझे जीवन में प्रथम बार मेरे आराध्य से साक्षात्कार का अनुभव हुआ।

जय श्री बदरीविशाल।

-विक्की निम्बल

श्री हरि के धाम पर पांचवीं बारजय बदरीविशाल
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वसुधारा