Friday, November 30, 2018

स्नेह सम्मिलन, ऋषिकेष

स्नेह सम्मिलन ऋषिकेश
23से 25 नवम्बर, 2018

एक ऐसा आयोजन जो सपनों को सच करने जैसा रहा। घने जंगल के बीच, शहर की चिल्ल-पों से दूर, छोटी सी नदी (हेजल)के तट पर, मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करते टेंट्स में बेहद स्वाद और सात्विक भोजन के साथ आप सब मित्रों के स्नेहपूर्ण व्यवहार ने इस पूरे आयोजन को जीवन की अविस्मरणीय स्मृति बना दिया।

रवि भाई ने इतनी जिम्मेदारियों के रहते इतना कुछ ऐसे स्थान पर उपलब्ध करा डाला जहां अनाज का दाना भी मिलना सम्भव नहीं। उस पर भी इतनी सरलता कि ना तो चेहरे पर कोई गर्व दिख रहा था न ही आंखों और व्यवहार में कोई अभिमान। रवि जी जैसा कोई बन पाए समझ लीजिए जीवन में सफल हो गया।

कुंदन जी के बारे में क्या कहें जो है ही कुंदन। मुझे लगता है कुंदन जी के घर वालों ने उनका नाम सोच समझ कर ही रखा होगा कि इनको बड़े होकर बनना ही कुंदन है। आयोजन की व्यवस्था को इतनी सहजता से इन्होंने संभाल लिया कि कक्ष वितरण में और अन्य किसी व्यवस्था में किसी भी प्रकार की कोई त्रुटि नहीं हुई।

मनोज सेंगर जी ने भी व्यवस्थाओं को इतने अनुभवी तरीके से संभाल रखा था कि ऐसा लगता नहीं था वह भी बाहर से ही आए हैं।

राजकुमार मिश्रा जी से मिलकर ऐसा नहीं लगा कर पहली बार मिल रहा हूँ। सबसे ज्यादा प्रभावित किया आदरणीय श्री प्रकाश मिश्रा जी ने। एक तो उनका समारोह में आना ही बड़ी बात रहा क्योंकि इतनी ठंड में, मूलभूत आवश्यकताओं से इतना दूर, नन्हे बालक के साथ, जंगल में 3 दिन रहना एक बड़ी चुनौती है जिसका उन्होंने बखूबी सामना भी किया और आयोजन में इतनी सक्रियता से भागीदारी की कि मुझे बार-बार हैरानी हो रही थी।

मेरे तीनों बालक उनके बच्चे से तो बड़े ही हैं। फिर भी मैं इतना समय आयोजन को नहीं दे पाया जितना प्रकाश मिश्र जी ने दिया प्रकाश जी का पूरा व्यक्तित्व ही ऊंचे लंबे कद और रंग रूप से लेकर गीत संगीत में इतनी रुचि आदि को मिलाकर अनुकरणीय कहा जा सकता है।

इन्हीं से मिलता जुलता व्यक्तित्व मुझे नजर आया आदरणीय श्री मनु त्यागी जी का। आशीष त्रिपाठी जी के बाद यदि अन्य कोई हीरो कहा जा सकता है तो वह श्री मनु त्यागी जी ही हैं। इतना बड़ा नाम, इतना विशाल व्यक्तित्व और उतनी ही सरलता व्यवहार में। मनु त्यागी जी के बारे में सोशल मीडिया पर कितना पढ़ा है उसके कारण मन में यह डर था कि कहीं वह हमसे बात भी करेंगे या नहीं। लेकिन उनसे मिलकर ये आयोजन एक मधुर स्मृति बन गया है।
सन्दीप पंवार जी से मिलकर भी बहुत अच्छा लगा। पवन यादव जी और उनके साथ आए नवीन शर्मा जी, पानीपत से आए बलकार जी, इन से मिलना भी मेरे लिए बोनस रहा।

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अपने मित्र श्री अनिल वर्मा जी के साथ भी करीब 20 साल बाद इतना समय इकट्ठा बिताने का अवसर इस सम्मिलन में ही मिला। जीवन जी के साथ रोजाना का मिलना हो जाता है लेकिन एक साथ इतना समय उनके परिवार के साथ पहली बार बिताया।

अनिल वर्मा जी की पहली ही गेंद पर मेरा झन्नाटेदार चौका मेरे लिए उम्र भर की धरोहर बन गया। हम दोनों 20 साल बाद एक साथ क्रिकेट खेले लेकिन यकीन मानिए ये आज भी उतने ही बड़े चीटर हैं। अपनी बैटिंग के चक्कर में ये किसी को भी रनआउट करा सकते हैं। हमने 1999 में इनका नाम आर ओ यानी रनआउट रखा था जो आज भी तर्कसंगत है।

पवन जी आगरा का व्यक्तित्व बहुत प्रभावित करता है। उनके चित्र इतने अच्छे रहे कि मुझे मलाल है मैंने उनसे अधिक चित्रों का अनुरोध नहीं किया। उनका आभार जो वो क्रिकेट किट लेके आये और हमने खूब आनन्द उठाया। एकमात्र क्रिकेट मैच हुआ और मेरी टीम विजयी रही। उनके बड़े बेटे में मैंने भविष्य का महान क्रिकेटर देख लिया है। सबसे बड़ी बात उनके सुपुत्र में ये नज़र आई कि प्रतिभा के साथ-साथ उनमें आत्मविश्वास भी प्रचुर मात्रा में भरा हुआ है जो क्रिकेट में उनके बहुत काम आएगा। पवन जी की जीवटता अनुकरणीय है। बड़े एक्सीडेंट का बाद उन्होंने बहुत जल्दी रिकवरी भी की और बाइक से लेह यात्रा भी केवल 11 माह बाद।

डॉ. तिवारी दम्पत्ति से मिलकर और बात कर उनके अनुभव सुने। श्री जयकांत जी, डॉ. आशुतोष जी, मनोज जी, दुनाली जी, सौष्ठव जी, जितेंद्र जी और डॉ. पवन मिश्रा जी आदि से अपार स्नेह पाकर ऐसा लगा मैं भी विशेष हो गया हूँ।

सब लोग मुझसे ऐसे मिल रहे थे मानों मैं कोई सेलिब्रिटी हूँ। और मैं ऐसा निकम्मा कि हर काम में अनधिकृत रूप से अपनी टांग अड़ाता रहा। चाहे रसोई में बिना आज्ञा घुसना रहा हो चाहे बिना अनुमति माइक का प्रयोग। मैं बेशर्मों के जैसे अपनी मर्जी करता रहा, जाहिर है बहुतों को बुरा लगा होगा। इसलिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

पहली शाम आशीष तिवारी जी की शादी की सालगिरह मनाई गई केक काट कर। बड़ा सुस्वादु केक था। मैंने बच्चों के बहाने तीन-चार बार खाया।😜😜

अपने जिगरी यार दीपक जैन जी का जन्मदिन आप लोगों के साथ मनाना मेरे लिए एक निजी प्राप्ति रहा। नन्हे बालक को भी रवि शुक्ल जी, आशीष जी, सचिन जी, सुबोध जी, सौष्ठव जी और अन्य सभी उपस्थितों का आशीष मिला जो उसके जीवन को ऊंचाइयों तक लेके जाएगा।

रसोई में संगीता जी का साथ मिला और उनसे सीखने को मिला कि कहीं भी आप इस तरह से काम कर सकते हैं जैसे आपका अपना काम हो। कोई उहापोह नहीं कोई श्रेय लेने का माद्दा नहीं।अदिति उमराव जी से आत्मविश्वास और कविता जी से स्नेह पगा व्यवहार सीखने मिला।

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कुछ डरावने अनुभव भी रहे।

दिन में मैं कहीं व्यस्त था तो नन्हा धनुष अपनी मम्मी की आंखों में धूल डाल नीचे नदी किनारे निकल गया जिसे रवि शुक्ल जी वापस लेके आये। जब रवि जी ने मुझे बताया तो कलेजा बाहर आने को हुआ मेरा।

उसी रात जब सोने की तैयारी थी तो मैं अर्जुन के पास लेटने से पूर्व बिस्तर देख रहा था और अर्जुन सोया हुआ था तो मैंने उसके सिर के पास एक जहरीला कीड़ा नज़र आया जिसे मैंने उठा कर टेंट से बाहर किया।

रात को ही हमारे टेंट के पास एक बिल्ली अजीब आवाज़ निकालती हुई चक्कर काट रही थी जिसके कारण पूरी रात भय रहा कि कहीं वो टेंट में ना घुस आए। प्रकाश मिश्र जी के नन्हे बालक की बार-बार चिंता हो रही थी कि कहीं उनके टेंट में ना ये जानवर चला जाए। बिल्ली जैसा जानवर छोटे बच्चों के लिए खतरनाक होता है।

उससे पहले अर्जुन अचानक जोर से चिल्लाकर नींद से उठा और छाती पकड़ कर रोने लगा। कारण पूछा तो कुछ बता नहीं पाया। उसके तुरन्त बाद ये बिल्ली वाला किस्सा हुआ। फिर तो सारी रात बस ऐसे ही गुज़र गयी।

कैम्प के दूसरे दिन काफी लोग आसपास घूमने निकल गए तो हमने भी क्रिकेट के तुरंत बाद नीचे नदी के किनारे कुछ चहलकदमी और मस्ती का प्लान बनाया। एक किनारे सौजन्य बाबू की टीम थी जिसमें सचिन जी, रवि जी आदि के साथ 15 के करीब लोग थे और दूसरे किनारे हम तीन परिवार। जीवन जी सपरिवार नीलकंठ निकल लिए थे। हमने नदी तट पर उतनी ही दूरी तक ट्रैकिंग की जहां तक मार्ग मिला। फिर वापस आकर सम्मिलन स्थल के बिल्कुल नीचे खूब देर जलक्रीड़ा की। धनुष सबसे ज्यादा समय पानी में खेला।

फिर ऊपर सम्मिलन स्थल से परिचय शुरू होने की आवाजें सुनाई देने लगी तो हम सब वापस ऊपर आ गए जहां परिचय के दौरान खूब हंसी ठट्ठा हुआ। हम जब तक नीचे नदी पर से ऊपर आये तब तक सौजन्य जी चोर-किसान-सिपाही का किस्सा सुना चुके थे जो मेरे लिए एक पहेली बन के रह गया। काश कोई दोबारा सुना दे।

हमारा समूह फतेहपुरियों के बाद शायद सबसे बड़ा रहा। फिर लंच लग गया तो परिचय क्रम अधूरा रह गया। लंच थोड़ा देर से लगा था सो सबने डट कर खाया। लंच में सारा भोजन पहाड़ी स्टाइल का था जिसमें मड़वे और गेहूं की रोटी, झिंगोला की खीर, गहद की दाल, पहाड़ी आलू मटर की स्वादिष्ट सब्जी, मूली-गाजर और प्याज-टमाटर का सलाद साथ में चावल। अहा! स्वाद अभी तक मुंह पर है। पहले महिलाओं और बच्चों को पत्तल पर खाना परोसा गया फिर हमारा नम्बर आया।

खाना खाने के बाद जब अन्य किसी कार्यक्रम की शुरुआत होती हमें नज़र नहीं आई तो दीपक, अनिल और मैंने जाकर माइक, ढोलक और हारमोनियम सम्हाल लिया और गणेश वंदना से होते हुए हनुमान जी की स्तुति की फिर भालचन्द्र जी द्वारा 'पुष्प की अभिलाषा' का सुंदर गान हुआ। पश्चात 'भारतवर्ष हमारा है' की ओजपूर्ण प्रस्तुति ने सबको बांध लिया। मैंने मुकेश के एक गीत 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' से मौसम और रंगीन बनाया। फिर 'मेरी तमन्नाओं की तकदीर तुम सँवार दो' भी गाया। पश्चात 'तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती' और जब 'कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है' गाया तो अर्धांगिनी जी ने भी आकर मेरा साथ दिया।

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कार्यक्रम अब रंग में आ चुका था। उपस्थिति भी अच्छी-खासी हो गयी थी। तब मैंने आदरणीय रवि शुक्ल जी को मंच पर आमंत्रित किया और संचालन प्रभार सौष्ठव जी को सौंप कर मंच से नीचे उतर आया। फिर तो जो समां बाँधा गुरुदेव ने कि क्या कहिये। कवि सम्मेलन को सुबोध जी शिखर पर पहुंचाते उससे पहले मैंने दीपक और उनके सुपुत्र अंश के जन्मदिन का केक गुरुदेव और अन्य विभूतियों के हाथों कटवाया। फिर एक दो व्यवधानों के बाद एक लुटेरा आता है। सूरत इतनी भोली कि कोई भी लुटने को स्वतः सज्ज हो जाये, स्वर ऐसा कि सामने वाला मुग्ध होकर अपने आपको सरेंडर कर दे, सौम्यता ऐसी कि सारी रौनक उसी लुटेरे से बंध जाए। उस लुटेरे ने कोई रहम नहीं किया और अपने शहद बुझे मुक्तक रूपी बाणों से सभी श्रोताओं का हृदय बींध डाला। फिर सबके मन और भावनाओं को अपने झोले में डाला और पूरी महफ़िल लूट कर लुटेरा अपने कक्ष में जा विराजा। सुबोध वाजपेयी नाम के इस लुटेरे से सुबह तक भी कुछ लोग लुटने को तैयार बैठे थे।

कुछ मित्रों को सारा आयोजन उतना व्यवस्थित नहीं लगा जितने की आशा थी लेकिन मेरा तो ये हाल होता है कि सौजन्य जी से मिलकर भूख भी याद नही आती, रवि शुक्ल जी को देखने भर से देव दर्शन की अनुभूति होती है, सचिन भाई के रहते व्यवस्था-अव्यवस्था पर ध्यान नहीं जाता। एक ओर पर्वत पर सुनहरा हिरण चर रहा हो और दूसरी ओर भालू के पैरों के निशान दिख जाएं, एक ओर मनु त्यागी जी, सन्दीप पंवार और पवन यादव जी हों दूसरी ओर आशुतोष जी, सुबोध जी और सौष्ठव जी हों तो कौन कमबख्त ये देखेगा कि खाना लगा या नहीं।
नीचे मन्द गति से बहता शीतल जल केवल उतना ही शोर कर रहा था जितना कानों को भा जाए।

दोपहर को जब बहुत लोग यहाँ-वहाँ निकल गए थे तब कुछ मगरमच्छ सपरिवार जलक्रीड़ा में मग्न थे जिनमें मैं भी शामिल था। जल इतना स्वच्छ था कि छोटी-छोटी मछलियां बिल्कुल साफ नजर आ रही थीं। धनुष ने जलक्रीड़ा में भी खूब धमाल मचाया और ट्रैकिंग में भी सारा रास्ता पैदल ही तय किया। ढाई बरस के बालक के लिए ये बड़ी बात है।
दूसरी ओर पवन जी आगरा और मनु त्यागी जी अपने-अपने कैमरे से धमाल मचाये थे जिनके चित्र देखकर हमें उनकी मेहनत नज़र भी आई।
रात में दीपक जी ने भी बहुत सुंदर गीत प्रस्तुत किये जिनमें "छूकर मेरे मन को" और "आ चल के तुझे मैं लेके चलूं" आदि प्रमुख थे। धमगज्जर अपने यौवन पर नहीं आ पाया तो सबने चाय के साथ पकौडों का आनन्द लिया, फिर रात को तहरी (एक प्रकार की मसालेदार खिचड़ी, कुछ-कुछ पुलाव जैसी) भी खाई जिसे बघार दी हुई लस्सी (मट्ठे) के साथ परोसा गया था। बाद में दीपक जी द्वारा अपने और सुपुत्र के जन्मदिन के अवसर पर मीठा दूध वितरित किया गया।
फिर रात्रि विश्राम।
अगली प्रातः हम 7 बजे निकल लिए। लेकिन उससे पहले पवन जी, पवन जी आगरा, संगीता जी और मनोज जी, राममोहन जी, छवि जी, भालचन्द्र जी, सचिन जी, सुबोध जी और बहुत सारे अन्य परिजनों ने बहुत भाव पूर्ण विदाई हमें दी। रवि त्रिवेदी जी के मुख पर भावुकता जैसे टपके जा रही थी। सवेरे खूब सारे चित्र लिए गए। बहुतों से पुनः भाव भरा मिलना हुआ और हम  अपनी गाड़ी से घर के लिएनिकल पड़े।

मन अभी भी वहीं पड़ा हुआ है। कोई जाए तो उठा लाये और हमें व्हाट्सएप्प कर दे।

-इति

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