Sunday, December 12, 2010

भूलना उसको मुश्किल था पर...............

थी राह कठिन उस तक वापस  जाने की,
हो गयी इन्तिहाँ खुद को बहलाने की.
दिन को न चैन था रातों को न सो पाता था,
जो वक़्त मिला तो खुद को समझाता रहता था.
कभी न समझा उस बिन अब में जी सकता हूँ,
कच्चे धागे से टूटा दर्पण सी सकता हूँ.
अब खुली आँख तो देखा वो तो कहीं नहीं है,
खुशियों से लेकिन राह अभी तक भरी पड़ी है.
जो नहीं भाग में हो उसका फिर क्या रोना है,
रो-रो के तो बस मिले हुए को ही खोना है.
गुनगुनी धूप सा जीवन अब तक बहुत पड़ा है,
खोल के बाहें जीवन अब भी वहीँ खड़ा है.
गर कर पाया तो जीवन सोने सा कर लूँगा,
जो ख्वाब अधूरे थे उनको पूरा कर लूँगा.
इक नयी सुबह अलसाई मुझको ताक रही है,
काली रात अमावास सरपट भाग रही है.
हँसते मुस्काते रहने का अब सोच लिया है,
रूठा रूठा चेहरा अब पीछे छूट गया है.
हो गयी है आदत उससे इतना दूर रहा हूँ,
भूलना उसको मुश्किल था पर..................
भूल रहा हूँ.


V.B. Series.

No comments:

Post a Comment